इतिहास लेखन

 
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जानिये कैसे लिखा गया भारतीय इतहास

इतिहास पढ़ने से पहले ये जानना बेहद जरूरी है कि इसे किसने कब और कैसे लिखा। हम इसी इतिहास लेखन पर चर्चा करेंगे। ये पोस्ट उनके लिए भी महत्वपूर्ण है जो हमेशा ये शिकायत करते हैं कि इतिहास में उनके जाति-धर्म के गौरवशाली इतिहास को नहीं पढ़ाया जाता या ये गलत पढ़ाया जाता है आदि आदि।

प्राचीन शिक्षित भारतीयों ने श्रुति साहित्य और हस्तलिखित पांडुलिपियों वाले ग्रन्थों जैसे:- त्रिपिटकों, महाकाव्यों, पुराणों और जीवनचारितों के माध्यम से अपने पारम्परिक इतिहास और संस्कृति को सँजोये रखा जिसमें मिथिकीय आख्यानों का भरमार है, लेकिन जब आधुनिक इतिहास लेखन की बात होती है तो इसके शुरुआत को हम यूरोपियों के आगमन और उनके अनुसंधान से जोड़ सकते हैं।

इन शुरुआती 18वीं-19वीं सदी के लेखन में यूरोपीय विद्वानों का दबदबा रहा जिन्होंने प्राचीन भारतीय पाठों के संग्रह, संपादन और उनके अनुवाद पर बेहतरीन काम किया है भले इनके अंदर साम्राज्यवादी/औपनिवेशिक विचारधारा क्यों न रही हो। इनमें सबसे पहली पुस्तक जिसका अनुवाद 1776 ई0 में हुआ वो मनुस्मृति थी। 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना विलियम जोन्स ने किया जहाँ से ये लोग मिलकर काम करने लगे।
विलियम जोन्स ने ही सर्वप्रथम यह स्थापित किया कि यूरोपीय भाषाएँ संस्कृत और ईरानी भाषाओं से बहुत मिलती हैं, फलस्वरूप अनेक यूरोपीय विद्वान भारतीय प्राचीन इतिहास के साहित्य में अपनी रुचि दिखाने लगे । 19वीं सदी में पुरातत्व, सिक्के एवं अभिलेखों तथा कला और स्थापत्य का अध्ययन भी होने लगा इसलिये अब प्राचीन इतिहास की और अधिक पुख्ता सूचनाएं मिलने लगीं।


इसी सदी में जेम्स प्रिंसेप को अशोक के ब्राह्मी और खरोष्ठी अभिलेखों को पढ़ने में सफलता प्राप्त हुई।1857 की क्रांति ने ब्रिटिश शासकों की आँखे खोल दी,उन्हें महसूस हो गया कि यहाँ के लोगों पर राज करने के लिए इनके रीति-रिवाज और सामाजिक व्यवस्था का गहन अध्ययन जरूरी है(इसलिए कहा जाता है कि अगर आपको राज करना है तो जनसामान्य के रीति-रिवाजों और समाज से अपना रिश्ता जोड़िए, इसे आप वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं, इतिहास यही तो सीखाता है!

इसके लिए अंग्रेजों ने मैक्स मूलर के संपादकत्व में विशाल मात्रा में प्राचीन धर्मिक ग्रन्थों का अनुवाद किया, ये अनुवाद सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट सीरीज़ में कुल 50 खण्ड में प्रकाशित हुए। इन पश्चिमी इतिहासकारों का उद्देश्य औपनिवेशिक था इसलिए इन्होंने भारतीय समाज को एक गतिहीन और पारलौकिक समस्याओं में डूबे रहने वाले लोगों के संदर्भ में देखा। इनका कहना है कि प्रचीन भारतीयों को इतिहास विशेषतः काल और तिथिक्रम का बोध नहीं था।

धर्म, नस्ल एवं जातिगत संस्थाओं तथा निरंकुश व तानाशाही शासन के चरित्र का निरूपण किया गया( निरंकुश इसलिए ताकि वे वायसराय के एकल शासन को न्यायोचित ठहरा सकें) । इन लेखनों में प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के ब्राह्मणवादी स्वरूप को अधिक महत्व दिया गया। इन्हीं सारे निष्कर्षों से भरा हुआ प्राचीन भारत का पहला सुव्यवस्थित इतिहास 1904 में विंसेंट आर्थर स्मिथ ने अर्ली_हिस्ट्री_ऑफ_इंडिया के रूप में प्रकाशित किया।

हालाँकि इन इतिहास लेखकों के निष्कर्ष सही भी प्रतीत होते हैं फिर भी इन इतिहासकारों की अधिकाँश मान्यता या तो गलत हैं या अतिश्योक्तिपूर्ण हैं। इनके लेखन का मूल उद्देश्य भारत में विदेशी शासन-पद्धति को सही ठहराना था।

प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे ग्रन्थों का अभाव है जो इतिहास के आधुनिक परिभाषा के अंतर्गत आते हों।

प्राचीन शिक्षित भारतीयों का दृष्टिकोण पूर्णतया धार्मिक था। उनकी दृष्टि में इतिहास मानवीय मूल्यों का संकलन मात्र था इसलिए उनकी बुद्धि धार्मिक और दार्शनिक साहित्य में अधिक लगी न कि राजनीतिक घटनाओं में। हाँ कुछ ऐसे लोग भी थे जो नास्तिक और भौतिकवादी परम्परा के अनुसार अपने मान्यताओं को रखे,लेकिन दुर्भाग्यवश उनके मूल ग्रन्थ नष्ट हो गए या नष्ट कर दिए गए (इनके बारे में प्रतिद्वंद्वी ब्राह्मण धर्म, जैन और बौद्ध धर्म के साहित्य में छिटपुट सूचनाएं मिलती हैं)।

चावार्क, उच्छेदवादी(Nihilist) अजितकेशम्बलीन, पुरणकश्यप जैसे विचारक इसी मान्यताओं को आगे बढ़ा रहे थे। अजित केशम्बलीन भारत के पहले भौतिकवादी चिंतक माने जाते हैं।

हालांकि सातवीं सदी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि भारत के प्रत्येक प्रान्त में घटनाओं का विवरण लिखने के लिए कर्मचारी नियुक्त थे। कल्हण के ऐतिहासिक ग्रन्थ "राजतरंगिणी" के विवरण से भी भारतीयों के इतिहास-बोध का साक्ष्य मिलता है।

यूरोपीय इतिहासकारों ने प्राचीन भारत पर विदेशी प्रभाव खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का प्रयास किया और फूट डालो राज करो के नीति के अनुसार भारतीय इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम, ब्रिटिश कालों में बाँटकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया(1857 क्रांति का मूल कारण अंग्रेजों ने मुस्लिम वर्ग को मानकर हिंदुओं का पक्ष लिया फिर 1905 के स्वदेशी क्रांति के समय मुस्लिमों का तुष्टिकरण कर साम्प्रदायिकता की आग को और हवा दिया)।

अधिकाँश यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा भारतीय अतीत के नकारात्मक छवि को प्रस्तुत करने के खिलाफ उस समय पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त किये अनेक भारतीय विद्वान जो उभरते हुए राष्ट्रीय आंदोलन की उपज थे, उन्होंने प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण इस प्रकार किया जिससे समाज सुधार और स्वराज प्राप्ति में सहायता मिल सके। इनको राष्ट्रवादी इतिहासकारों की श्रेणी में रखा जाता है,जो राजनीतिक इतिहास पर ज्यादा जोर दे रहे थे।

इन्होंने पहली बार दक्षिण भारत और क्षेत्रीय राजनीतिक इकाईयों को भारतीय इतिहास की मुख्य धारा से जोड़ा। इन इतिहासकारों ने भारत के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विकास के जड़ों को स्थानीय स्तर पर जोड़ने का मजबूत प्रयास किया, ऐसा करने में अधिकतर राष्ट्रवादी इतिहासकार हिन्दू पुनर्जागरण की लहर में बह गये, इन्होंने अतीत के स्वर्णयुगों की तलाश शुरू की। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो तर्कनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ रुख अपनाए हुए थे।

राष्ट्रवादी इतिहासकारों में राजेंद्र लाल मित्र(1822-1891) ने कई वैदिक मूल ग्रन्थ प्रकाशित किए और 'इंडो एरियन्स' पुस्तक लिखी। इन्होंने वैदिक संस्कृति में मांसाहारी भोजन करने को सिद्ध किया। आर जी भंडारकर जैसे महान समाज सुधारक ने दक्कन के सातवाहनों का इतिहास तथा वैष्णव एवं अन्य संप्रदायों के इतिहास का पुनर्निर्माण किया और अपने शोध के आधार पर विधवा विवाह का समर्थन और जाति-प्रथा और बाल विवाह का खंडन किया।

भारतीय सामाजिक नियमों और आचारों का विश्वकोष हिस्ट्री_ऑफ_धर्मशास्त्र पी. वी. काणे(1880-1972) की रचना अनमोल है। पुरालेख के विद्वान डी_आर_भंडारकर(1875-1950) और हेमचंद्र_राय_चौधरी ने राजनीतिक इतिहास का गंभीर अध्ययन कर ये सिद्ध किया कि भारतवासियों को प्रशासन की अच्छी जानकारी थी। दक्षिण भारत के इतिहास पर ए_हिस्ट्री_ऑफ_साउथ_इंडिया नीलकंठ शास्त्री(1892-1975) का एक विश्वसनीय ग्रन्थ है। बहुप्रतिभाशाली इतिहासकार के_पी_जायसवाल(1881-1937) का सबसे बड़ा काम था:- भारतीय तानाशाही शासन की कपोल-कल्पना के अंग्रेजों की मान्यता का खण्डन करना।

इन्होंने 1924 में अपने पुस्तक हिन्दू_पॉलिटी में यह सिद्ध किया कि प्राचीन काल में यहाँ गणराज्यों का अस्तित्व था। हालाँकि इन राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा भी यूरोपीय इतिहासकारों जैसे भारतीय इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालों में बांटा गया, इनका मूल उद्देश्य हिन्दू काल को गरिमामंडित करना और तुर्क-मुस्लिम आक्रमण को एक त्रासदी के रूप में देखना था।

यूरोपीय उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भले ही अपने लेखन में पक्षपात पूर्ण और साम्प्रदायिक रुख अपनाया लेकिन प्राचीन इतिहास में इनका महत्वपूर्ण योगदान भुलाया नहीं जा सकता। इन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को एक क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया और प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इन्हीं सब के बीच ब्रिटिश इतिहासकार #ए_एल_बैशम(1914-86) ने ये प्रश्न उठाया कि प्राचीन भारत को आधुनिक दृष्टि से देखना कहाँ तक उचित होगा(हम लोग आज भी यही गलती दुहराते हैं)। इनकी रचना #वंडर_दैट_वॉज_इंडिया(1951), #वी_ए_स्मिथ के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण के दोषों से बहुत हद तक बची है। बैशम कि यह रचना #अराजनीतिक_इतिहास की ओर ले जाती है जबकि अबतक के लेखक सिर्फ राजनीतिक इतिहास में ही दिलचस्पी ले रहे थे।

1950 के दशक में #मार्क्सवादी इतिहास लेखन का उदय हुआ, जिसकी प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन में सबसे प्रभावशाली भूमिका रही। मार्क्सवादी इतिहास लेखन पर अधिकाँश लोग ये आरोप लगाते हैं कि इसने प्राचीन भारतीय इतिहास को विकृत कर दिया लेकिन मार्क्सवादी इतिहास लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि इनके वजह से भारतीय इतिहास को राजनीतिक आख्यानों से अलग सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं और प्रक्रियाओं के अध्ययन के तरफ मोड़ा जा सका, विशेषकर #वर्ग_विभाजन, #कृषि_सम्बन्धों और #किसान_मजदूर वर्गों के इतिहास को उचित स्थान मिल सका।

सदियों से दबे-कुचले समुदायों को भी इतिहास ने अपने अध्ययन के दायरे में ले लिया। इनकी सीमाएं ये रहीं कि इन्होंने पाश्चात्य इतिहास और मानवशास्त्र में प्रचलित अध्ययन के एक रेखीय प्रारूपों और उनके मापदंडों को अधिक महत्व दिया। सामाजिक संरचना की जाति और लिंगभेद की अपेक्षा इन्होंने वर्गभेद पर जोर दिया। धर्म और संस्कृति सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं के सहयोगी के रूप में ही स्थान पा सके। #डी_डी_कौशाम्बी(1907-66) ने अपने ग्रन्थों #एन_इंट्रोडक्शन_टू_द_स्टडी_ऑफ_कल्चर_एंड_सिविलाइजेशन और #एनशिएंट_इंडियन_कल्चर_एंड_सिविलाइजेशन में इतिहास की भौतिक वादी व्याख्या प्रस्तुत की।

इन्होंने ही सर्वप्रथम #जनजातियों और वर्गों की प्रक्रियाओं की दृष्टि से सामाजिक और आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सर्वेक्षण किया। इन्हीं सबके बीच #सबल्टर्न या #जनवादी इतिहास लेखन भी महत्वपूर्ण है जिसमें मुख्यतः जनसाधारण लोगों का अध्ययन किया जाता है। सबल्टर्न का अर्थ निकृष्ट या #निम्न_श्रेणी का होता है। एक तरह से ये मार्क्सवादी रुख ही है लेकिन उन्होंने एक हद तक मार्क्सवादी दृष्टिकोण को चुनौती भी दिया है।

इन सभी इतिहास लेखनों में महत्वपूर्ण भिन्नता होते हुए भी कुछ समानताएं भी हैं जैसे:- ब्राह्मणवादी संस्कृत ग्रन्थों पर जोर देना, पुरातात्विक स्रोतों की तरफ कम ध्यान देना और यूरोपियन दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास को देखना आदि। प्राचीन इतिहास में राष्ट्रवादी तथा साम्प्रदायिक उद्देश्यों और मार्क्सवादी इतिहास लेखन का प्रभाव कुछ हद तक आज भी मौजूद है।

इधर पिछले 50 वर्षों से ऐतिहासिक शोध में नए सैद्धांतिक संदर्भ, #विज्ञान एवं #तकनीकी का प्रयोग तथा लगातार उपलब्ध होते पुरातात्विक सूचनाओं को देखा जा सकता है। इतिहासकारों (विशेष कर स्त्रियों) के एक छोटे से दल द्वारा #लिंगभेद और वर्ग, जाति तथा राजनीतिक शक्ति पर आधारित सामाजिक वर्गीकरण के बीच सम्बन्ध स्थापित किया जा रहा है। अभिलेखीय साक्ष्यों एवं पाठ्यात्मक स्रोतों का पुनर्विश्लेषण और क्षेत्रीय इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत हुई है।

आज #साहित्यिक और #पुरातात्विक स्रोतों के विषमताओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ताकी उनके बीच एक समन्यव स्थापित हो सके, इतिहास की इस परंपरा को बदलने की आवश्यकता है जिसके तहत साहित्यिक स्रोतों को ही स्वयं-सिद्ध मानकर स्वीकार कर लिया जाता है।

इतिहास लेखन में भारत की जटिल और विविध सांस्कृतिक परम्पराओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यह आश्चर्य का विषय है कि धार्मिक और कला इतिहास के अध्ययन में विदेशियों का बहुत ज्यादा योगदान है जबकि भारतीय इतिहास लेखन की मुख्य धारा में लंबे समय तक इसकी उपेक्षा की गई है।

वर्तमान में इतिहास को ऐसे #उदारवादी #बौद्धिक वतावरण की अतिआवश्यकता है, जिसमें तर्क, संवाद,और सभ्य बहस के प्रति सम्मान हो। मैं कहना चाहूंगा कि अगर आपको इतिहास पढ़ना और समझना है तो सिर्फ प्राचीन #धार्मिक_किताबों पर ही अपनी दिलचस्पी न रखिये, साथ ही साथ इतिहास की कुछ अच्छी किताबें भी पढ़ते रहिये, फिर आप स्वयं यह निर्णय ले सकेंगे कि वास्तव में प्राचीन समय में क्या हुआ था। आप अपने मन से ये बातें निकाल दीजिये की सारी अच्छी चींजों का उद्भव भारत में ही हुआ है और ना ही ये विचार रखिये कि धर्मिक धारणाएँ, कर्मकांड, वर्ण, जाति और रूढ़ि ये ही भारतीय इतिहास के मुख्य विषय हैं।

#अंध_देशभक्ति, परिमार्जित #उपनिवेशवादी वाले विचार और एक रेखीय प्रारूपों वाले मापदंड से अतीत का अध्ययन करने पर भारत की प्रगति नहीं हो सकती। वर्तमान के बहुत सारे सामाजिक व्यवहार , संस्थाएं, और वैचारिक परिदृश्य की जड़ें प्राचीन इतिहास से ही जुड़ी हुई हैं, जिनका समाधान इतिहास अध्ययन से सम्भव है। इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है कि वह लोगों को #ऐतिहासिकता की दृष्टि से सोचना और समझना सिखाता है। इतिहास अतीत और #वर्तमान के बीच निरंतरता और परिवर्तन को समझने का सेतु भी है। इतिहास स्वयं इतना रोचक और रोमांचकारी है कि उसे पढ़ने से अपने आप को रोक नहीं पाएंगे।

यूरोपीय उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भले ही अपने लेखन में पक्षपात पूर्ण और साम्प्रदायिक रुख अपनाया लेकिन प्राचीन इतिहास में इनका महत्वपूर्ण योगदान भुलाया नहीं जा सकता। इन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को एक क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया और प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इन्हीं सब के बीच ब्रिटिश इतिहासकार ए_एल_बैशम(1914-86) ने प्रश्न उठाया कि प्राचीन भारत को आधुनिक दृष्टि से देखना कहाँ तक उचित होगा(हम लोग आज भी यही गलती दुहराते हैं)?
इनकी रचना वंडर_दैट_वॉज_इंडिया(1951), वी_ए_स्मिथ के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण के दोषों से बहुत हद तक बची है। बैशम कि यह रचना अराजनीतिक_इतिहास की ओर ले जाती है जबकि अबतक के लेखक सिर्फ राजनीतिक इतिहास में ही दिलचस्पी ले रहे थे।

1950 के दशक में मार्क्सवादी इतिहास लेखन का उदय हुआ, जिसकी प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन में सबसे प्रभावशाली भूमिका रही। मार्क्सवादी इतिहास लेखन पर अधिकाँश लोग ये आरोप लगाते हैं कि इसने प्राचीन भारतीय इतिहास को विकृत कर दिया लेकिन मार्क्सवादी इतिहास लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि इनके वजह से भारतीय इतिहास को राजनीतिक आख्यानों से अलग सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं और प्रक्रियाओं के अध्ययन के तरफ मोड़ा जा सका, विशेषकर वर्ग_विभाजन, कृषि_सम्बन्धों और किसान_मजदूर वर्गों के इतिहास को उचित स्थान मिल सका। सदियों से दबे-कुचले समुदायों को भी इतिहास ने अपने अध्ययन के दायरे में ले लिया।

इनकी सीमाएं ये रहीं कि इन्होंने पाश्चात्य इतिहास और मानवशास्त्र में प्रचलित अध्ययन के एक रेखीय प्रारूपों और उनके मापदंडों को अधिक महत्व दिया। सामाजिक संरचना की जाति और लिंगभेद की अपेक्षा इन्होंने वर्गभेद पर जोर दिया।

मार्क्सवादी इतिहास-लेखन में धर्म और संस्कृति सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं के सहयोगी के रूप में ही स्थान पा सके। डी_डी_कौशाम्बी(1907-66) ने अपने ग्रन्थों एन_इंट्रोडक्शन_टू_द_स्टडी_ऑफ_कल्चर_एंड_सिविलाइजेशन और एनशिएंट_इंडियन_कल्चर_एंड_सिविलाइजेशन में इतिहास की भौतिक वादी व्याख्या प्रस्तुत की। इन्होंने ही सर्वप्रथम भारत में जनजातियों और वर्गों की प्रक्रियाओं की दृष्टि से सामाजिक और आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सर्वेक्षण किया।

इन्हीं सबके बीच सबल्टर्न या जनवादी इतिहास लेखन भी महत्वपूर्ण है जिसमें मुख्यतः जनसाधारण लोगों का अध्ययन किया जाता है। सबल्टर्न का अर्थ निकृष्ट या निम्न_श्रेणी का होता है। एक तरह से ये मार्क्सवादी रुख ही है लेकिन उन्होंने एक हद तक मार्क्सवादी दृष्टिकोण को चुनौती भी दिया है।

इन सभी इतिहास लेखनों में महत्वपूर्ण भिन्नता होते हुए भी कुछ समानताएं भी हैं जैसे:- ब्राह्मणवादी संस्कृत ग्रन्थों पर जोर देना, पुरातात्विक स्रोतों की तरफ कम ध्यान देना और यूरोपियन दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास को देखना आदि। प्राचीन इतिहास में राष्ट्रवादी तथा साम्प्रदायिक उद्देश्यों और मार्क्सवादी इतिहास लेखन का प्रभाव कुछ हद तक आज भी मौजूद है।

इधर पिछले 50 वर्षों से ऐतिहासिक शोध में नए सैद्धांतिक संदर्भ, विज्ञान एवं तकनीकी का प्रयोग तथा लगातार उपलब्ध होते पुरातात्विक सूचनाओं को देखा जा सकता है। इतिहासकारों (विशेष कर स्त्रियों) के एक छोटे से दल द्वारा लिंगभेद और वर्ग, जाति तथा राजनीतिक शक्ति पर आधारित सामाजिक वर्गीकरण के बीच सम्बन्ध स्थापित किया जा रहा है। अभिलेखीय साक्ष्यों एवं पाठ्यात्मक स्रोतों का पुनर्विश्लेषण और क्षेत्रीय इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत हुई है।

आज साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों के विषमताओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ताकी उनके बीच एक समन्यव स्थापित हो सके, इतिहास की इस परंपरा को बदलने की आवश्यकता है जिसके तहत साहित्यिक स्रोतों को ही स्वयं-सिद्ध मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। इतिहास लेखन में भारत की जटिल और विविध सांस्कृतिक परम्पराओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यह आश्चर्य का विषय है कि धार्मिक और कला इतिहास के अध्ययन में विदेशियों का बहुत ज्यादा योगदान है जबकि भारतीय इतिहास लेखन की मुख्य धारा में लंबे समय तक इसकी उपेक्षा की गई है।

वर्तमान में इतिहास को ऐसे उदारवादी बौद्धिक वतावरण की अतिआवश्यकता है, जिसमें तर्क, संवाद,और सभ्य बहस के प्रति सम्मान हो। मैं कहना चाहूंगा कि अगर आपको इतिहास पढ़ना और समझना है तो सिर्फ प्राचीन धार्मिक_किताबों पर ही अपनी दिलचस्पी न रखिये, इतिहास की कुछ अच्छी किताबें भी पढ़ते रहिये फिर आप स्वयं निर्णय ले सकेंगे कि वास्तव में प्राचीन समय में क्या हुआ था। आप अपने मन से ये बातें निकाल दीजिये की सारी अच्छी चींजों का उद्भव भारत में ही हुआ है और ना ही ये विचार रखिये कि धर्मिक धारणाएँ, कर्मकांड, वर्ण, जाति और रूढ़ि ये ही भारतीय इतिहास के मुख्य विषय हैं।

अंध_देशभक्ति, परिमार्जित उपनिवेशवादी वाले विचार और एक रेखीय प्रारूपों वाले मापदंड से अतीत का अध्ययन करने पर भारत की प्रगति नहीं हो सकती। वर्तमान के बहुत सारे सामाजिक व्यवहार , संस्थाएं, और वैचारिक परिदृश्य की जड़ें प्राचीन इतिहास से ही जुड़ी हुई हैं, जिनका समाधान इतिहास अध्ययन से सम्भव है। इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है कि वह लोगों को ऐतिहासिकता की दृष्टि से सोचना और समझना सिखाता है। इतिहास अतीत और वर्तमान के बीच निरंतरता और परिवर्तन को समझने का एक जरिया है। इतिहास स्वयं इतना रोचक और रोमांचकारी है कि उसे पढ़ने से अपने आप को रोक नहीं पाएंगे।

इति मतलब जो बीत गया
हास अर्थात उस पर विचार
ताकि नवीन कदम संभाला जा सके।

Written by Dr. Ankit Jaiswal

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