भ्रष्टाचार एक्सप्रेस

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फिर ये सवाल भी बैठे बिठाये मन में ही जाता है कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार कहाँ पाया जाता है ? हम ज्यादा रक़म की बात नहीं कर रहे, उस पर तो सरकार के मंत्रालयों की मोनोपली है... हम भ्रष्टाचार के ज्यादा मौके उपलब्ध होने की बात कर रहे हैं जहाँ भ्रष्टाचार की सम्भावना ज्यादा से ज्यादा हो।  कुछ मित्रों ने कोर्ट कचेहरी की शकल दिखायी, कुछ ने चौकी थानों की तो कुछ ने सरकारी ठेकेदारी का पता दिया लेकिन निजी तौर पर मुझे नगर पालिका या नगर निगम इस पुरातन पद्धति के लिए सबसे ज्यादा सम्भावनाओं वाली जगह लगी।
मैं एक छोटे से शहर से आता हूँ जहाँ नगरपालिका होती है।  मैंने यहाँ भ्रष्टाचार की सम्भावना तलाशी तो मन पुलकित प्रफुल्लित हो उठा। नगर पालिका के छोटे से क्षेत्र में बाकायदा गंगा बहायी जा सकती है।

इसमें सबसे मुख्य तो अध्यक्ष होता है जो नगरपालिका के द्वारा प्रयोग की जाने वाली या नगरीय विकास के काम आने वाली सामग्री की आपूर्ति का स्वयं इंतेज़ाम कर लेता है या अपने लोग फिट कर देता है जिनसे कमीशन की वैतरणी निर्बाध उसकी जेब तक पहुँचती रहे।  उसका इंटर-लॉकिंग ब्रिक का बिज़नेस हो सकता है, और अगर नहीं भी रहा होगा तो अध्यक्ष बनते ही कर लिया जाता हैतो समझिये कि पूरे शहर में इंटर-लॉकिंग कि बहार जायेगी। फुटपाथ, गलिया तो विकास कि गाठ गायेंगे ही -- अच्छी भली चौड़ी सड़कें भी खोद कर उनकी जगह इंटर-लॉकिंग बिछा दी जायेगी। कारोबारी मुनाफा एक जेब में और ठेकेदारी का कमीशन दूसरी जेब में। कहीं बाकायदा टेंडर से तो कही अध्यक्ष के मौखिक वर्क-आर्डर पर अध्यक्ष की ही गैंग के ठेकेदार पुलिया, गली, फुटपाथ वगैरह बनाते रहते हैं। लागत पचास हज़ार की आती है तो बिल तीन लाख तक का भी बन सकता है।  

जब आप किसी तरह  कारपोरेशन की बनायी गली कूचों की सूची निकालेंगे तो मन बल्ले-बल्ले हो जायेगा, यह देख कर कि आपकी गली पिछले बीस साल में एक बार बनी है पर कागज़ पर दो या तीन बार बन चुकी है।  नाली नाले ढकने वाले पत्थर भले साल में तीस चालीस पाथे जाएँ लेकिन कागज़ों पर लगातार पाथे जाते रहते हैं। साथ में सितम यह कि निर्माण सामग्री भी अपनो से ही ली जाती है जो होती पचास की है तो बिल सौ का बनता है।  
इसी तरह नगरपालिका के अंतर्गत आने वाले प्राथमिक विद्यालय होते हैं जो आप ढूंढने जायेंगे तो बड़ी मुश्किल से एकाध मिलेंगे लेकिन कागज़ों पर हर वार्ड में एक दो विद्यालय और आंगनबाड़ी केंद्र ज़रूर मिल जायेंगे जिनके ड्रेस, कपडे, मिड-डे मील, आंगनबाड़ी पर बच्चो के लिए सूखे आहार के खर्चे लगातार जारी किये जाते रहते हैं और सामग्री भी उठायी जाती रहती है जिसे बाद में ब्लैक कर लिया जाता है।

ऐसे ही नगरपालिका के अंतर्गत आने वाली विद्युत् व्यवस्था होती है। एक वार्ड में बीस खम्बे हैं, सौ सौ रूपये वाली बीस c. लगा दीजिये और दो हज़ार के बिल को चार पांच हज़ार का बिल बना कर ले लीजिये, फिर आगे भी इन्हीं c..l. को टूटी या फ्यूज साबित करके ( दिखावे के लिए सही कफल निकाल कर फ्यूज कफल लगा दीजिये ), नई की पेमेंट ले लीजिये।  अब तो हाई-मास्ट का फैशन है, हर मुख्य चौराहे पर आपको ऊंचे ऊंचे खम्बों पर ये हाई-मास्ट लाइट दिखेंगी जिनकी लागत भले तेरह लाख आती हो पर बिल चौदह लाख का भी बनाया जा सकता है। बटवारा संतोष-जनक ढंग से होगा तो कोई बहरी क्या कर लेगा। 

ऐसे ही एक जल-कल विभाग होता है। शहर में पानी की टंकियां होती हैं, ट्यूब-वेल होते हैं, जगह जगह इंडिया मार्का हैण्ड पंप लगे होते हैं, सब इसी विभाग  का काम है।  हैंडपंप कि लगत अगर पंद्रह हज़ार भी आये तो बिल बीस हज़ार का बनाया जा सकता है और उसपे भी सितम यह कि हो सकता है कि कुछ पहुँच वाले भाइयों के घर-आँगन या दुकान में आपको सरकारी खर्चे पर लगे नल मिल जाएँ। फिर टूट-फूट की रिपेयरिंग भले कभी कभी हो, चूना ब्लीचिंग कभी कभार इस्तेमाल हो लेकिन इनके खर्चे निकले जाते रहते हैं और बिल भी कभी असली लागत के नहीं होते बल्कि डेढ़ गुनी या दोगुनी कीमत के होते हैं।

ऐसे ही पानी की व्यवस्था बनाये रखने के लिए टंकियों  पे  जनरेटर का इंतेज़ाम होता है जो भले पड़े पड़े ख़राब हॉं चुके हों  कि चलने पर चूं तक करें पर उन  गरीब बेज़ुबान जनरेटरों के लिए तेल की पर्चियां पूरी बेरहमी से काटी जाती रहती हैं और रमज़ान में शहर के जितने भी वार्ड हैं उनके सभासदों को मस्जिदों के हिसाब से तेल भी पूरी बाकायदगी के साथ आवंटित होता रहता है चाहे मस्जिद में जनरेटर हो ही या इन्वर्टर की वजह से उसकी ज़रुरत ही पड़ती हो।

इसी तरह नगरपालिका में अलग अलग कार्यों के लिए ढेरों वाहन होते हैं जिनकी खरीद में ही मोटा कमीशन लिया जाता है। अब वो कोई आम पब्लिक यूज़ के वाहन तो होते नहीं के उनकी कीमत सबको पता हो।  अगर नगरपालिका में बीस वाहन हैं तो रोज़ सभी गाड़ियों पे तेल जारी होता है, भले सोलह गाड़ियां प्रांगण में ही खड़ी रहें या उनमे से कुछ अध्यक्ष जी के घर या कारखाने के निर्माण में ही लगी हों, जैसा कि मैं अपने ही शहर में देख रहा हूँऔर तो और ये भी हो सकता है कि पालिका के पास साडी गाड़ियों के लिए ड्राईवर तक हों और हों भी तो उनमे से कुछ तनख्वाह नगर पालिका से लेकर, निजी तौर पर अध्यक्ष महोदय की ही गाडी चलाते नज़र आयें जैसे मेरे शहर में है।

फॉगिंग, दवाओं के छिड़काव, ट्यूब-वेल वगैरह के फुके मोटरों की मरम्मत जैसे कार्य भी लगातार होते रहते हैं लेकिन सिर्फ कागज़ों पर वर्ना फॉगिंग, डी टी टी के छिड़काव तो बीस साल पहले होते थे और मोटर भी क्या इतने फुकते हैं? ऐसे ही प्रमाणपत्र बनवाने, दाखिल ख़ारिज करने, हाउस-टैक्स वाटर-टैक्स जमा करने जैसे कई कागज़ी काम होते हैं जिनके लिए जनता से सीधे सुविधा शुल्क ले लिया जाता है।  फिर कॉर्पोरशन कि कई दुकाने मार्किट होती हैं, पटरी दुकानदार होते हैं जहाँ रेवड़ियां बाँटने के लिए सुविधा शुल्क के रूप में उगाही की जाती है।

Ashfaq Ahmad

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