डाक्टरों की हड़ताल: कितनी नैतिक?



डाक्टरों की हड़ताल: कितनी नैतिक?


चलो, आखिरकार डाक्टरों की हड़ताल ख़त्म हुई और डाक्टर काम पर लौट आये लेकिन एक सवाल फिर भी मन  में चुभता है कि क्या हड़ताल इतनी ही ज़रूरी थी ? इस बीच प्रदेश भर में ६० के करीब लोगों की जान गयी... अब इनकी  मौतों को किसके खाते में लिखा जाये? क्या अपने साथियों के लिए इतनी पीड़ा दिखने वाले डाक्टरों में इतनी संवेदना भी है कि वह सामूहिक रूप से इन मरने वाले लोगों के प्रति खेद जताएं या शोक सन्देश जारी करें। या कोई एकाध डाक्टर कोई बयान जारी करके अपने कर्तव्य की इति-सिद्धम कर लेगा ? 
मैंने एक बात महसूस की है कि आजकल तेज़ी से विकसित होते समाज में अराजकता और प्रतिकारात्मकता की प्रवृत्ति लोगों में बहुत तेज़ी से घर करती जा रही है और सारी मानवीयता और संवेदनाओं से इतर 'हम और हमारा' का भाव इस कदर समाज को अपनी गिरफ्त में कसता जा रहा है कि इससे निकलना ही अब असम्भव लगने लगा है। मेरी समझ में नहीं आता कि इसे चेतना-जाग्रति के विकृत रूप में लूं तो और क्या कहूं ?
रोज़ की खबरें पढ़िए देखियेहर कोई इस 'हम और हमारा' के सिंड्रोम से पीड़ित नज़र आएगा -- कोई मारा पीटा गया, किसी की हत्या हो गयी, डकैती पड़ गई, बलात्कार हो गया, पुलिस वालों ने किसी निरपराध  को पकड़ के बंद कर दिया और प्रतिक्रियात्मक कार्र्वाई में तत्काल १००-२०० लोगों को लेकर सड़क जाम, रेल रोको, चौकी थाने का घेराव और और इससे उपजी बाकी समस्याएं गई भाड़ में और पीड़ित अगर किसी यूनियन, एसोसिएशन का मेम्बर हुआ तो पूरी बिरादरी हड़ताल पर। लोग हलकान हों, देश-प्रदेश  संकट में पड़ जाये, लाखों करोड़ों का नुकसान हो जाये या दूसरों की जानें ही क्यों चली जाएँ -- उनकी बला से , बस हमारा और हमारे लोगों का हित साधना चाहिए।
देखा जाये तो जब पूरी पीढ़ी ही इस सिंड्रोम से पीड़ित है तो डाक्टर भी इससे कैसे अछूते रह सकते हैं। उनके कुछ लोग अराजकता के इलज़ाम में पिट गए, गिरफ्तार कर लिए गए तो फ़ौरन पूरी बिरादरी किसी कामगार यूनियन की तरह हड़ताल पर बैठ गई। वह यह भूल गए कि उनका काम दूसरों से अलग  होता है। वह शासन-प्रशासन, मुख्यमंत्री, टीवी, अख़बार सबको  रो-रो कर अपने पीड़ित होने की दास्तान सुनाते रहे कि कैसे एक सपाई विधायक और पुलिस वालों ने उन  मासूम डाक्टरों पर जालियां वाला बाग़ टाइप  बर्बर ज़ुल्म ढा दिए। अब वह यह तो बताएँगे नहीं कि विधायक के चालक और गनर से हुई भिड़ंत के बाद उन्होंने अपने ढेरों साथी बुला लिए थे और खुद मारपीट की थी, यह न्यूज़ टीवी पर तक दिखायी गई थी और इसके बाद ही पुलिस ने प्रतिक्रियात्मक कार्र्वाई की थी जिसकी बाकायदा रिकॉर्डिंग करके तो उन्होंने सबको दिखा दी लेकिन खुद उन्होंने क्या किया था इसे रिकॉर्ड करने की ज़रुरत न लगी और सबने वही देखा जो उन्होंने दिखाया। अब ऐसे में वह पुलिस कार्र्वाई  सही थी या गलत, वह विवेचना का विषय है और इसके लिए हड़ताल के सिवा भी प्रशासन पर दबाव बनाने का कोई और रास्ता निकाला जा सकता था   लेकिन बात वही है कि जब अराजक और प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति के साथ 'हम और हमारा' के सिंड्रोम डाक्टर भी अछूते नहीं हैं तो वह कैसे चुप रहते ? इससे पहले भी वह हड़ताल के ज़रिये कई लोगों को मौत के मुंह में धकेल चुके हैं जिसके लिए उन पर बाकायदा केस तक चल रहा है ।
सेवा भाव वाले इस पेशे को शुद्ध नफे नुक्सान का धंधा बना चुके इन डाक्टरों को असल में अब यह भी याद नहीं रह गया है कि हर इंसान खुदा या भगवान के बाद अगर किसी से उम्मीद रखता है तो वह डाक्टर होता है। जो निस्स्वार्थ सेवाभाव वाले देवपुरुष इस मानवीय पेशे में हुआ करते थे उनका व्यवसाई-करण हो चुका है और यह जो जूनियर डाक्टर हैं वह तो इस सेवा भाव वाले बटन को पहले ही डिलीट कर चुके हैं।वो दिन हवा हुए जब डाक्टर भगवान के रूप में जाने जाते थे -- अब सिर्फ पैसे उगाने वाली मशीने हुआ करती हैं और यह पेशा सेवा धर्म से रूपांतरित हो कर कमाऊ धंधा बन चुका है और बड़े बड़े घरों के संवेदनहीन नूरचश्म अब इस धंधे में एंट्री ले चुके हैंटो आप उनसे कैसे किसी संवेदना की उम्मीद रख सकते हैं।
अपने साथियों या कहें कि बिरादरी के प्रति हुई इस तथाकथित अन्याय के विरुद्ध हड़ताल के नाम पर उनका साथ देने वाले यह कारोबारी भला अस्पतालों में मरते लोगों को क्यों देखने लगे, गम्भीर हालत में ट्रामा सेंटर पहुंचे मरीजों की निराशाजनक वापसी उन्हें क्यों दिखायी देने लगी? अब खुद को पीड़ित बता कर हड़ताल के ज़रिये अपना विरोध-प्रदर्शन करने वाले इस दोहरे चरित्र का यह पहलू भी देखिये कि साथियों के साथ हुए अन्याय के नाम पर सरकार को हड़ताल दिखा कर, गरीब मरीज़ों को मौत के मुंह में धकेल कर ये पीड़ित बिरादरी प्राइवेट तौर पर अपना धंधा जारी रखती है -- वहाँ पैसे के ज़ोर के आगे इनका 'हम और हमारा' वाला सिंड्रोम अप्रभावी हो जाता है। सरकार तो काम करने केबवजूद पैसे दे ही देगी-- नहीं देगी तो फिर हड़ताल हो जायेगी लेकिन प्राइवेट दखने आये मरीज़ तो खामखाह पैसे देने से रहे।
और जिनके मरीज़ मरते हैं, तड़पते हैं, अस्पतालों ट्रामा सेंटरों से मायूस वापस लौटते हैं -- हलाकि यह भी 'हम और हमारा' के सिंड्रोम से ग्रस्त समाज का अंग हैं जो इधर उधर सड़क जाम, रेल रोको, चौकी थानों का घेराव, करने के लिए कुछ घंटो में ही संगठित विरोध करने में समर्थ होते हैं लेकिन अस्पतालों में अपने लोगों को मरते तड़पते देख कर भी वैसा संगठित विरोध नहीं कर पाते कि डाक्टरों की सामूहिक संवेदनहीनता के लिए आगे बढ़ कर उनका गिरेबान थाम कर उनकी आत्मा को झकझोर सकें और उन्हें एहसास करा सकें कि उनकी बेरहमी रोज़ लोगों को मरने पर मजबूर कर रही है। लोग ईश्वर के बाद उन्ही से उम्मीद लगते हैं और वो उन उम्मीदों के साथ विश्वासघात कर रहे हैं।
चाहे वो डाक्टरों की हड़ताल हो या किसी कर्मचारी संगठन का आंदोलन या किसी राजनैतिक पार्टी का धरना-प्रदर्शनइनसे पैदा होने वाली समस्याएं, य़ू ही हमारे लिए जानलेवा बनती रहेंगी,अगर हमने संगठित विरोध अख्तियार किया तोकम से कम हड़तालियों में किसी तरह का तो कोई डर हो वरना अभी ६० लोगों ने जाने गवाई है कल और ज्यादा लोगो को भी ज़िन्दगी से हाथ धोना पड़ सकता है।

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