क्लीन चिट की महिमा.....
क्लीन चिट की महिमा.....
हाल के दिनों में आपने राम कृपाल यादव, जगदम्बिका पाल, राम विलास पासवान जैसे बीजेपी के साथ खड़े होने वाले नेताओं को कहते सुना होगा कि चूँकि अब मोदी को क्लीन चिट मिल चुकी है इसलिए वह अब अछूत नहीं हैं। यह क्लीन चिट भी न्यूज़ चैनलों पर इतनी बार कहा, दोहराया जा चुका है कि अब चुटकुला सा लगने लगा है। शरद पवार, करूणानिधि, महबूबा मुफ़्ती जैसे ही और भी कई नेता हैं जो बीजेपी के साथ खड़े होने के लिए ज़मीन बना रहे हैं -- न्यूज़ चैनलों पर आपको यह चुटकुला सुनते नज़र आते रहेंगे। जब तक सब कुछ अंतिम रूप से तय नहीं हो जाता। घोर अवसरवादिता के इस दौर में नेता जब तक मोदी के विरोधी खेमे में रहते हैं, यह क्लीन चिट उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाती और वह इसे कोई भाव नहीं देते लेकिन जैसे ही उनकी गोटियां भाजपा के साथ फिट हो जाती हैं, वह सर हिला हिला कर इस क्लीन चिट को सर्वमान्य प्रमाणपत्र की तरह ग्रहण कर लेते हैं, बल्कि दूसरों को भी ग्रहण करने की नसीहत देने लगते हैं।
देखा
जाये तो इस
क्लीन चिट का
अगर कायदे से
पोस्टमार्टम किया जाये
तो यह कोई
ऐसी चीज़ भी
नहीं जिसका इतना
बोलबाला हो सके।
मैं अपने यहाँ
का एक उदाहरण
देता हूँ, करीब
बीस साल पहले
मोहल्ले के एक
दबंग ने एक
युवक को भरे
चौराहे पर गोली
मार दी -- युवक
मर गया। दबंग
के खिलाफ रिपोर्ट
हुई, -- केस चला
लेकिन जिस हत्या
को सौ से
ज्यादा लोगों के सामने
अंजाम दिया गया
था, उनमे से
कोई भी गवाही
देने सामने न
आया। न गवाह
मिले न सबूत।
अदालत को उसे
क्लीन चिट थमानी
ही पड़ी। वह
दबंग अब दूसरे
मोहल्ले के लोगों
के सरों पर
दहशत बन के
आज भी कायम
है, इसके बाद
भी उसका नाम
कुछ और हत्याओं
में जुड़ा लेकिन
सबूत और गवाहों
के अभाव में
कभी अपराधी न
साबित हो पाया
तो अब क्या
हम उसे सिर्फ
इसलिए निर्दोष और
पाक साफ़ मान
लें कि अदालत
में अपराधी न
साबित हो सका
-- क्या कानूनी क्लीन चिट
से उसके सारे
दोष ख़त्म हो
गए ?
यह
एक बानगी भर
है -- आप अपने
मोहल्ले, इलाके, शहर में
ही नज़र दौड़ाइये,
आपको दर्जनों ऐसे
दबंग, बाहुबली, पैसे
और पहुँच वाले
समर्थ लोग मिल
जायेंगे जो कभी
अपने पाप को
कानूनी नज़र में
पाप नहीं साबित
होने देते। वह
अपनी ताक़त के
दम पर सबूतों
को मैनिपुलेट कर
लेते हैं और
गवाहों को खड़े
नहीं होने देते
और कानून की
नज़र में क्लीन
ही बने रहते
हैं ... तो क्या
ऐसे लोगों को
वाकई निर्दोष और
इन्नोसेंट मान लिया
जाए ?
न्यायिक
प्रक्रिया पुलिस द्वारा उपलब्ध
कराये साक्ष्यों और
गवाहों के साथ
काबिल वकीलों की
जिरह की कसौटी
पर परखने से
चलती है लेकिन
यह कैसे मान
लिया जाए कि
हर कोई अपना
काम ठीक से
कर रहा है।
वह आरोपी के
पैसे, पहुँच और
ताक़त से प्रभावित
नहीं हो रहा
? लेकिन मोदी के
मामले में तो
ऐसा लगता है
जैसे मोदी ने
कैलाश पर्वत जा
कर बरसों एक
टांग पर खड़े
हो कर शिव
आराधना की
है और बदले
में प्रसन्न होकर
भोले बाबा ने
उन्हें क्लीन चिट के
रूप में ऐसा
वरदान दिया है
जिसकी अपरम्पार लीला
के दर्शन आये
दिन टीवी के
न्यूज़ चैनल्स पर
होते रहते हैं।
मैं
नहीं जानता कि
दंगों में उनकी
कोई सक्रिय भूमिका
थी या नहीं।
मैं अंतर्यामी नहीं
कि परदे में
छुपे सत्य को
देख सकूँ, और
वे लोग भी
भगवान नहीं जो
उन्हें सीधे सीधे
आरोपित करते हैं
जैसे उन्हें भगवान्
की तरह हर
अनदेखे सत्य का
ज्ञान हो लेकिन
साथ ही वह
लोग भी भगवान्
नहीं जो उन्हें
हर आरोप से
सीधे सीधे ऐसे
बरी कर देते
हैं जैसे दंगों
के वक़्त उनके
समक्ष टीवी पर
दंगो का लाइव
प्रसारण हो रहा
हो और उन्हें
सब पता हो
के कौन दोषी
था कौन नहीं।
बनी
बात है कि
दावा करने की
स्थिति में कोई
नहीं -- जिस क्लीन
चिट को किसी
मेडल की तरह
प्रस्तुत किया जा
रहा है, वो
भी तो उसी
कानून ने दी
है जो स्वयं
नहीं देख सकता
बल्कि वकील और
पुलिस की दृष्टि
का मोहताज होता है
और वही देखता
है जो उसे
दिखाया जाता है
और इस बात
की गारंटी भारत
में कोई नहीं
दे सकता कि
वकील और पुलिस
जो दिखा रहे
हैं वही अंतिम
सत्य है। कोर्ट
में एक ही
आरोपी के लिए
दो काबिल वकील
दो एकदम विपरीत
थ्योरी पेश करते
हैं और ज़ाहिर
है के दोनों
तो सही नहीं
हो सकते और
इस बात की
भी गारंटी नहीं
कि आँख पर
पट्टी बांध कर
न्याय करने वाला
कानून हर बार
सही थ्योरी को
ही पकड़ेगा। कई
बार फ़र्ज़ी सबूतों
के साथ ज़ोर
से बोला जाने
वाला झूठ भी
सच को पछाड़
कर विजयी साबित
होता है।
बहरहाल,
अदालत जो भी
निर्णय दे -- उस पर
संदेह और असहमति
की गुंजाइश तो
हमेशा बनी रहती
है, तभी उच्च
और उच्चतम न्यायलय
के रास्ते विकल्प
के रूप में
बनाये गए हैं।
लेकिन मोदी जी
के पक्ष में
मिली एस. आइ.
टी. क्लीन चिट
को ऐसे प्रस्तुत
करना जैसे वह ब्रम्हा,
विष्णु, महेश द्वारा
प्रदत्त कोई सर्टिफिकेट
हो -- कतई तर्कसंगत
नहीं। अगर यही
सबकुछ है तो
अपने वक़्त में
मोदी ही के
कद के अटल
जी ने गुजरात
दंगों के बाद
मोदी को लेकर
जो विचार व्यक्त किये
थे, फिर वो
क्या था ? क्या
आज बीजेपी के
नेता और समर्थक
मानेंगे कि अटल
जी गलत थे
-- या पगला गए
थे जो उल्टा
सीधा बोल गए
थे। फर्क यही
था कि अटल
जी की आँखों
पर कानून वाली
काली पट्टी नहीं
बंधी थी और
वो दूसरों का
परोसा देखने के
बजाय खुद अपनी
आँखों से देखने
में सक्षम थे
के कौन दोषी
था कौन नहीं।
जो
भी हो -- क्लीन
चिट का ऐसा
महिमामंडन ठीक नहीं
और भले दंगों
में मोदी की
कोई सक्रिय भूमिका
न रही हो
-- एक मुख्यमंत्री के
तौर पर उनकी
नैतिक ज़िम्मेदारी तो
बनती ही थी
जो उन्होंने कभी
न मानी और
न कभी उन
दंगों में मरने
वालो के लिए
सार्वजानिक तौर पर
कोई शोक या
संवेदना जतायी।
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