आज़म मेहरबान तो भाजपा पहलवान


आज़म मेहरबान तो भाजपा पहलवान 


तमाम बीजेपी नेताओं को आज़म पर बरसते देख थोड़ा अन्यायपूर्ण लगा -- उन्हें तो आज़म का आभारी होना चाहिए कि आज़म मेहरबान हुए तो बीजेपी यू. पी. के पहले चरण में पहलवान हो गयी। पश्चिमी उत्तरप्रदेश की जिन दस सीटों पर वोट पड़े उनमे से से वो से पर ही दावेदार थी लेकिन आज़म की ज़ुबान के ज़हर के रद्दे-अमल में अब वह से सीटें जीतने की हालत में पहुँच गयी और मुस्लिम समाज को भी यह जान कर थोड़ा नयापन अनुभव हुआ कि प्रवीण तोगड़िया, उमा भर्ती, साध्वी ऋतम्भरा,अमित शाह और विनय कटियार ब्रांड के (जिन्हे सभ्य भाषा में फायर ब्रांड कहा जाता है), प्वाइज़नस आयटम आज़म खान के रूप में मुस्लिम समाज के पास भी मौजूद हैं, वरना अब तक तो मुसलमानों के बिहाफ़ में जो ज़हरीली बयानबाज़ी करते थे वो भी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़े हिन्दू नेता ही होते थे -- अब जब आज़म खान ने मोर्चा संभल लिया है तो मामला बराबर हो गया। अब दोनों पक्ष के लोग फील गुड महसूस कर सकेंगे।
पता नहीं कि ऐसी बेतुकी और ज़हरीली बयानबाज़ी करके आज़म खान ने वफ़ा किस्से निभायी -- मुसलमानों से, जिनके नेता होने के नाम पर मुलायम सिंह प्रेमिकाओं की तरह उनके नखरे उठाते हैं या उस भाजपा से जिसे वह कोस तो रहे थे लेकिन अपनी ज़ुबान के ज़हर से बहुसंख्य हिन्दू समाज को उकसा कर उसी भाजपा के पाले में एकजुट कर दिया। समझ में नहीं कि आज़म दोस्त किसके -- मुसलमानों के या भाजपा के ?
इससे पहले उन्हें एक बाद-मिजाज़ और बदजुबान नेता के रूप में जाना जाता रहा है। यहाँ तक कि उनके स्टाफ ने भी कुछ दिन पहले उनके खिलाफ बगावत तक कर दी थी, लेकिन चुनाव के वक़्त में उन्होंने अपनी ज़ुबान का एक रंग और दिखाया और ऊपर से अपनी सफाई में ऐसी मासूमियत दिखाते हैं कि एक साल के अबोध बालक को भी पीछे छोड़ दें। उन्होंने देश को बताया कि उन्होंने गलत क्या कहा, जो फैक्ट है वही तो बताया। वह फैक्ट जानते हैं तो उन्हें देश को यह भी बताना चाहिए कि सेना में कितने पर्सेंट मुसलमान हैं जो कारगिल फ़तेह करने वाले हज़ारों सैनिक उनहन मुसलमान नज़र आने लगे? उन पर तो एक एफ. आइ. आर. सेना की तरफ से भी ऐसी गलतबयानी के लिए दर्ज होनी चाहिए थी।
देखा जाये तो मुस्लिम वोटों की दावेदारी में सपा जिन मुस्लिम चेहरों को आगे करती है उनमे दो तो अक्सर टीवी डिबेट में दिखाई देते हैंएक तो चौक लखनऊ के बौखल नवाब हैं तो दूसरे मुंबई के अबु असीम आज़मी और दोनों ही महान नेता बुढ़ापे में बच्चों से मुक़ाबला करते दिखाई देते हैं। कोई तार्किक बात कहनी तो इन्होने कभी सीखी ही नहीं -- भले उम्र में दादा नाना बन गए हों। गंभीर मुद्दों पर होती बहसों में ऐसी बातें करते हैं जैसे दूसरी तीसरी क्लास के बच्चों की जमघट में बैठे उन्हीं के स्तर की बातें कर रहे हों। सपा की तरफ से जिस मुस्लिम समाज को रिप्रेजेंट करने यह दोनों महानुभाव पहुँचते हैं, अपनी अज्ञानता और अपरिपक्वता से उसी समाज को शर्मिंदा करने में कोई कसार बाकि नहीं रखते। 
आज़म खान को सपा ने अपना मुख्य मुस्लिम चेहरा बना रखा है लेकिन उनकी ज़ुबान और मिजाज़ में ऐसी कडुवाहट है कि उनके साथ काम करने की सरकारी मज़बूरी होती तो शायद एक परिंदा भी उनके साथ टिकता। ज़ुबान से ज़हर उगलते वक़्त शायद उन्हें मुसलमानों से बड़ी हमदर्दी रही हो लेकिन यह हमदर्दी उस वक़्त शायद सुप्त अवस्था में थी जब मुज़फ्फर नगर के राहत शिविरों में ठण्ड से जूझते मुसलमानों के बच्चे मर रहे थे और वह विदेशी दौरों के मज़े ले रहे थे और तभी मुसलमानों के दूसरे हमदर्द सैफई में महोत्सवी रासलीलाओं में व्यस्त राहत शिविरों में रहते लोगों को षड्यंत्रकारी बता रहे थे। तब चुनाव जो नहीं थे।
शुक्र है कि चुनाव आयोग ने थोड़ी मुस्तैदी दिखाई और खान साहब की ज़ुबानी कैंची की धार कुंद कर दी वरना अगर यह ऐसे ही अंतिम चरण तक चलती रहती तो बीजेपी को साठ से सत्तर सीटें जीतने में कोई अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती। आज़म खान ही उनका काम आसान कर देते।
अमित शाह जैसों के विष-वमन से आम हिन्दू समाज पर उतना असर नहीं पड़ता क्योंकि बहुसंख्य हिन्दू उदारवादी है और वह इस तरह की साम्प्रदायिकता पसंद नहीं करता। यदि ऐसा होता तो देश के बटवारे के वक़्त इतने मुसलमान भारत में रह गए होते -- ऐसा तभी संभव हुआ था जब चारों तरफ होते खून खराबे के बीच इसी बहुसंख्य हिन्दू समाज के लोगों ने हमारी सुरक्षा की थी -- इस इतिहास को भी नहीं भूलना चाहिए। आज भी देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज का एक बड़ा हिस्सा साम्प्रदायिकता का घोर विरोधी है और वह जल्दी बहकावे में नहीं आता लेकिन जब अमित शाह जैसों की क्रिया पर आज़म खान जैसे प्रतिक्रियात्मक ज़हर उगलना शुरू कर दें तो बड़े बड़े तनावर दरख़्त भी झुक जाते हैं जैसे पश्चिमी यू. पी. में दिखाई दिया, जिन्होंने चौधरी चरण सिंह का हैंडपंप ओंटने में उम्र गवाई थी वह भी इस बार कमल खिलाने में लग गए।
एक आदमी अगर कुछ गलत करता है तो यह ज़रूरी क्यों है कि हम भी प्रतिक्रिया में कुछ वैसा ही गलत करें। तात्कालिक चुनावी लाभ और अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए नेताओं के यह ज़हरीले और अनर्गल प्रलाप आखिर समाज को किस दिशा में ले जायेंगे ?


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