हार जीत से इतर
हार जीत से इतर
कहते हैं कि किसी जंग में हार जीत से इतर भी कुछ मायने हो सकते हैं। आम तौर पर हार और जीत सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं, लेकिन चुनाव में हार जीत मिल कर भी सिक्के का एक ही पहलू प्रदर्शित कर पाते हैं -- दूसरा पहलू कुछ और भी हो सकता है जिसकी अक्सर लोग चर्चा नहीं करते।
दिल्ली
के चुनावी दंगल
को सिर्फ हार
जीत के रूप
में परिभाषित किया
गया, लेकिन चुनाव
अस्पष्ट ही सही पर
कुछ और भी
दर्शाते हैं। 'आप' ने
भाजपा को धो
डाला--दिल्ली में
भाजपा का सूपड़ा
साफ़… यह आम
प्रतिक्रियाएं
रहीं चुनाव के
बाद बीजेपी की
स्थिति पर -- कुछ
ऐसी ही टिप्पणियां तब
भी सुनी गयीं
थीं जब 10
साल सरकार चलाने
वाली कांग्रेस लोकसभा
चुनाव में सिर्फ
44 सीटों पर
सिमट गयी थी।
लेकिन चुनाव की
हार जीत या
सीटों की संख्या
क्या उन दलों
को मिले समर्थन
की सही स्थिति
बता पाती है?
दिल्ली
में पिछले चुनाव
में 32 सीटें जीतने
वाली बीजेपी सिर्फ
3 पर सिमट
गयी --आम धारणा
यह बनी कि
लोग केंद्र सरकार
से नाराज़ थे,
लोग प्रधानमंत्री की
नीतियों के विरुद्ध थे।
विश्लेषकों ने यह तक
बताया कि 54
प्रतिशत मत पाने वाली
'आप' ने पिछले
चुनाव के मुकाबले न
सिर्फ कांग्रेस का
15 प्रतिशत वोट
हथियाया बल्कि बीजेपी का
भी एक प्रतिशत वोट
पाने में कामयाब
रही, क्योंकि बीजेपी
का पिछले चुनाव
में हासिल 33
पर्सेंट वोट घट कर
32 प्रतिशत रह
गया। यह आंकड़े
ऊपरी तौर पर
जितने सटीक और
प्रमाणित हैं -- विश्लेषण करने
पर उतने ही
भ्रामक साबित होते
हैं। भाजपा को
पिछले चुनाव में
33.07 प्रतिशत के
रूप में 26,04,100 वोट मिले
थे, जबकि इस
बार उसे 27
लाख से ज्यादा
वोट मिले लेकिन
प्रतिशत घट कर 32
रह गया। जब
लोग बीजेपी से
नाराज़ थे और
केंद्र की भाजपा
सरकार के विरोध
में थे तो
भाजपा दिल्ली में
पिछले चुनाव के
मुकाबले लगभग लाख वोट
ज्यादा कैसे पा
गयी?
प्रतिशत की
घटबढ़ पिछले चुनाव
के मुकाबले वर्तमान चुनाव
में नए बढ़े
मतदाताओं की कुल संख्या
के चलते होती
है। अगर हम
प्रतिशत को किनारे कर
के देखें तो
साफ़ पता चलता
है कि पिछले
विधान सभा चुनाव
के मुकाबले इस
बार बीजेपी ने
और ज्यादा समर्थन
हासिल किया लेकिन
वह सीटों के
मामले में 'आप'
से इसलिए पिछड़
गयी क्योंकि 'आप'
ने उससे ज्यादा
समर्थन हासिल किया।
'आप' ने न
सिर्फ कांग्रेस का
15 प्रतिशत वोट
हासिल किया बल्कि
नए बढ़े मतदाताओं से
भी समर्थन पाने
में कामयाब रही।
आमतौर
पर बहुमत का
आधार आधे से
एक ज्यादा होता
है, जैसे लोकसभा
या विधानसभा में
सरकार बनाने के
लिए चाहिए होता
है या किसी
सदन में विधेयकों को
पारित कराने के
लिए चाहिए होता
है लेकिन किसी
जन-प्रतिनिधि के
चुने जाने में
यह आंकड़ा कारगर
नहीं साबित होता।
कोई 49 प्रतिशत वोट
पाकर भी हार
जाता है, कोई
सिर्फ 22 प्रतिशत वोट
पाकर भी जीत
सकता है... इस
तथ्य के बावजूद
कि 78 प्रतिशत लोगों
ने उसके खिलाफ
वोट दिया है।
यह विरोध में
पड़ा मत इसलिए
प्रभावी नहीं होता क्योंकि यह
अलग अलग कई
खानों में बंटा
होता है और
सिर्फ 22 प्रतिशत को
बहुमत मान लिया
जाता है, जो
सुनने में भले
हास्यास्पद लगे किन्तु है
अकाट्य सत्य।
उत्तर
प्रदेश जैसे राज्य
में, जहां बीजेपी,
कांग्रेस, सपा, बसपा वैसे
ही कई सीटों
पर मुकाबले को
चतुष्कोणीय कर देते हैं,
अब 'आप' उसमे
पांचवा कोण बनाने
मैदान में आ
गयी है, ऐसे
में अगर इन
पांचों दलों के
प्रत्याशी बराबर की टक्कर
दें तो जीत
22-25 प्रतिशत में
ही होगी। आम
तौर पर ज्यादातर राज्यों में
चुनावी मुकाबले त्रिकोणीय और
चतुष्कोणीय होते हैं जहां
बराबरी की लड़ाई
में विजय 34
प्रतिशत या 26 प्रतिशत समर्थन
से भी हो
सकती है। कुछ
ही राज्य हैं
जहाँ मुकाबले दो
दलों के बीच
में होते हैं
और जीत 50
प्रतिशत से ऊपर समर्थन
पाकर होती है।
बहुमत
का गणित तो
आधे से एक
ज्यादा ही होना
चाहिए और इस
मामले में 'आप'
ने आधे से
4 प्रतिशत ज्यादा
समर्थन पाकर वाकई
बहुमत पाया है।
वर्ना 2012 में 29
प्रतिशत वोट पाकर उत्तर
प्रदेश में सपा
पूर्ण बहुमत की
सरकार बनाती है
तो लगता है
बाकी पार्टियां हाशिये
पर धकेल दी
गयी हैं लेकिन
सपा की इस
ऐतिहासिक जीत का दूसरा
पहलू यह भी
था कि 71
प्रतिशत लोगों ने, यानि
आधे से काफी
ज्यादा लोगों ने
उसके खिलाफ वोट
ही दिया था।
यह
गणित लोकसभा में
भाजपा की विराट
और महान जीत
के खिलाफ भी
खड़ा होता है
कि पूरे देश
में जब मोदी
की ऐसी आंधी
चली कि कांग्रेस का
सफाया ही हो
गया, तब भी
उसे कुल वोटों
का 31 प्रतिशत , यानि
17,16,97,539 वोट ही मिले,
जिसका मतलब मोदी
जी के प्रति
महान समर्थन के
बावजूद 69 प्रतिशत लोगों
ने बीजेपी को
वोट नहीं दिया
और वोटों की
गिनती देखेंगे तो
लगभग साफ़ हो
गयी कांग्रेस को
भी 10,69,35,311 यानि
19 प्रतिशत लोगों
के वोट मिले।
2014 चुनाव की
आम धारणा यही
थी कि लोग
कांग्रेस के 10 साल
के कुशाषन के
खिलाफ थे, कांग्रेस से
खफा थे, यू.
पी. ए. की
नीतियों के विरुद्ध थे
और उसे उखाड़
फेकना चाहते थे
तो फिर यह
10 करोड़ लोग
कौन थे जिन्होंने इतनी
एंटी-इन्कम्बेंसी के
बावजूद कांग्रेस को
वोट दिया। जबकि
10,34,05,272 वोट पाकर 2004
में, और 11,91,10,776 वोट
पाकर 2009 में
कांग्रेस ने सरकार बनायीं
थी और तब
के विपक्ष में
बैठी भाजपा ने
8,58,66,593 वोट पाकर भी
2004 में
138, और 7,84,35,538 वोट
पाकर 2009 में
116 सीटें जीतने
में कामयाब रही
थी लेकिन 2015 में
भाजपा से क्रमशः
2 और 3 करोड़
वोट ज्यादा पाकर
भी कांग्रेस सिर्फ
44 सीटें
जीत पायी तो
इसलिए नहीं की
उसके खिलाफ वैसा
माहौल था जैसा
बताया गया, बल्कि
इसलिए क्योंकि मोदी
के चलते बीजेपी
को उससे ज्यादा
समर्थन मिला। वे
मतदाता जो हर
चुनाव में स्विंग
होते हैं, वे
कांग्रेस के बजाय बीजेपी
के पाले में
गए। जैसे अभी
दिल्ली में भाजपा
इसलिए नहीं हारी
की उसे पिछले
चुनाव में 32
सीटें जीतने के
वक़्त मिला समर्थन
कम हो गया
था-- उसने पहले
के मुकाबले 1
लाख वोट ज्यादा
हासिल किये, बल्कि
वह इसलिए हारी
क्योंकि उसके मुकाबले 'आप'
को मिलने वाला
समर्थन ज्यादा था।
चुनाव
में हारजीत का
एक मुख्य कारण
मुकाबले का बहुकोणीय हो
जाना भी होता
है... जितने ज्यादा
तगड़े प्रतिद्वंदी -- उतने
कम प्रतिशत में
जीत सुनिश्चित, लेकिन
इस तरह की
जीत किसी दूसरे
दल को मिलने
वाले समर्थन और
सहमति की सही
तस्वीर नहीं पेश
कर पाती। जैसे
2015 के
आम चुनाव में
बीजेपी-कांग्रेस के
बाद तीसरे नंबर
पर सबसे ज्यादा
वोट पाने वाली
बसपा (4.17% के साथ 2,29,46,182 वोट)
एक भी सीट
न हासिल कर
सकी और उससे
कम वोट पाने
वाली टी. एम.
सी. और ए.
आई. डी. एम.
के. (क्रमशः 3.8 प्रतिशत के
साथ 21259681 वोट और 3.3 प्रतिशत के
साथ 18,11,5825 वोट)
34 और 37
सीट जीत लेती
हैं।
बहरहाल
सीटें किसी भी
दल को कितनी
भी मिलें -- किसी
का सफाया होना
सीटों की संख्या
से सुनिश्चित नहीं
होता। अगर अपने
सबसे बुरे हाल
में भी 10 करोड़
लोगों का समर्थन
अगले आम चुनाव
के लिए कांग्रेस की
उम्मीदों को ज़िंदा रखता
है तो दिल्ली
में भी 27
लाख लोग बीजेपी
को यह यकीन
दिलाते हैं कि
उसका समर्थन कम
नहीं हुआ। हारजीत
दूसरी वजहों से
भी होती है।
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