सौहार्द का विलोपन




सौहार्द का विलोपन 


वे हताश हैं, निराश हैं, झुंझलाए हुए हैं और खीझ कर चुप से हो गए हैं। वे, जिनकी वाणी साम्प्रदायिक सदभाव बनाये रखने में सबसे मुखर होती थी, जो एक समरसता पूर्ण समाज की बुनियाद थे, जो आपसी सौहार्द की मिसालें बनाते थे, जो धार्मिक एकता के नारे गढ़ते थे --- आज बदले हुए वातावरण में ऐसे चुप हो गए हैं कि उनके विलोपन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। अब तो एकता में अनेकता पैदा करने वालों का दौर है। वे, जो घृणा से भरे हुए हैं, घृणा को ओढ़ते बिछाते हैं, घृणा के प्रवचन करते हैं --- अब सर्वत्र उन्ही का बोलबाला है। वे याहू, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स-एप, फायर चैट सब जगह हैं, वे टैक्सी-टेम्पो, बसों, ट्रेनों में यात्रा करते मिल जाते हैं, वे अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, पार्कों, चाय की दुकानों, बाज़ारों, गली मुहल्लों में चर्चा करते पाये जाते हैं। वे स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं और दूसरे सभी धर्मावलम्बियों से घृणा करते हैं। उनकी असहिष्णुता से भरी वाणी यत्र- वत्र सर्वत्र सुनाई पड़ती है। वे राष्ट्रवादी हैं और उनके अतिरिक्त दूसरे सभी धर्मों के अनुयाइयों की राष्ट्र के प्रति निष्ठा संदिग्ध है। शायद वे जल्द ही ये मांग भी करें कि देश में मुसलमानों और ईसाईयों को वीसा लेकर रहना होगा और साथ में अपनी राष्ट्रभक्ति का कोई प्रमाण भी प्रस्तुत करना होगा।

ऐसा नहीं है कि वे पहले नहीं थे, पहले भी थे पर कम थे और धार्मिक-सामाजिक एकता के पैरोकारों की मज़बूत उपस्थिति के चलते दबे से रहते थे। वे, उनके आगे क्षीण प्रतीत होते थे जिनके लिए धर्म बस ईश्वर को मानने का एक तरीका भर था --- दूसरे धर्म के लोगों को भी उसी ईश्वर की संतान मानते थे। दूसरे समुदाय के लोगों के लिए उनके मन में द्वेष नहीं उपजता था पर अब वे व्यापक सोच वाले सह्रदयी लोग हाशिये पर धकेल दिए गए हैं और जो घृणा से भरे चुप और कम बोलने का मौका पाने वाले लोग थे --- वे ही वर्चस्व स्थापित किये हैं, उन्हीं की वाणी मुखर है।

कभी फेसबुक सोशल साइट हुआ करती थी, जहाँ लोग अपने जाने अनजाने दोस्तों के साथ एक आभासी दुनिया में हंसी-मज़ाक, चुटकुले, शायरियां करते थे, दुःख दर्द, इवेंट, फैमिली फोटो वगैरा शेयर करते थे। कोई एक पोस्ट होती थी तो वहीँ महफ़िल जम जाती थी --- किन्तु अब हवा बदल गयी है, लोग बदल गए हैं, वे अब न्यूज़ चैनलों, अख़बारों, नेताओं या फ़िल्मी हीरो की पोस्ट पर एकत्रित होते हैं और जी भर कर गली गलौज करते हैं, मन की भड़ास निकालते हैं -- इनमे हिन्दू भी होते हैं और मुस्लिम भी --- अगर अभी भी आप धार्मिक सौहार्द में विश्वास रखते हैं तो फेसबुक-ट्विटर से दूर रहिये अन्यथा आपकी आस्था खतरे में पड़ जाएगी। लोगों को जोड़ने वाली और सोशल कही जाने वाली फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स-एप अब दंगे भड़काने और नफरत फ़ैलाने का भी माध्यम बन गयी हैं।

हवा के बदलने की एक वजह तो राजनीति ही है --- राजनीति विकास की होनी चाहिए, सामाजिक न्याय की होनी चाहिए लेकिन जब यह धर्म पर आधारित हो जाये तो समाज में व्यापक द्वेष ही पैदा करती है। आज के हालात यह हैं अख़बार और टीवी की ख़बरें लूट, हत्या, बलात्कार, छेड़खानी जैसी घटनाओं से भरे रहते हैं लेकिन जहाँ पीड़ित हिन्दू हुआ और अपराधी दूसरे समुदाय का तो एक राजनितिक दल के नेता दल-बल सहित उसकी पैरवी करने पहुँच जाते हैं, उसके समर्थन में हंगामा कर देते हैं, प्रशासन पर दबाव डालने लग जाते हैं, वह घटना टीवी अख़बार में खूब चर्चा पाती है लेकिन बाकी जो ढेरों ऐसे अपराध साथ ही घटित हुए होते हैं जहाँ पीड़ित और अपराधी एक ही समुदाय के हों तो ऐसी संवेदना नज़र नहीं आती, पीड़ित न्याय की बांट जोहते रह जाते हैं। कोई यह नहीं सोचता कि अपराध करने वाला सिर्फ अपराधी होता है -- उसे उसके किये की सजा कानून द्वारा मिलनी चाहिए? उसकी अलग से धार्मिक पहचान का क्या मतलब? क्या न्याय के लिए भी हिन्दू और मुसलमान देखा जाएगा

न्यूज़ चैनल्स और अखबारों के फेसबुक पेज भी इस नफरत को बढ़ाने में भूमिका निभाते हैं, वे अक्सर ऐसी पोस्ट करते हैं जो लोगों को अपनी नफरत दिखाने का मौका देती है। अभी गणतंत्र दिवस पर उपराष्ट्र पति की विवादस्पद फोटो लगभग सभी ने अपने अंदाज़ में पोस्ट की थी और जब तक उनके कार्यालय से इस विवाद पर स्पष्टीकरण आता कि प्रोटोकाल के मुताबिक वे सावधान की मुद्रा में थे, तब तक सोशल कही जाने वाली इन साइट्स पर वे हज़ारों गलियां खा चुके थे। इसलिये नहीं कि उन्हें धिक्कारने वाले तिरंगे का बहुत ज्यादा सम्मान करते हों बल्कि इसलिये के उपराष्ट्र पति मुस्लिम समुदाय से आते हैं। ऐसे ही द्वेषपूर्ण वातावरण में मुस्लिम होने का खामियाज़ा आमिर खान को भी 'पी के' के रूप में भुगतना पड़ा। हालांकि फिल्म निर्माण से जुड़े लगभग सभी लोग हिन्दू थे और आमिर ने लेखक द्वारा रचित एक किरदार को जिया भर था लेकिन सारी 'हाय-हाय', मुर्दाबाद और गालियां सिर्फ उन्हीं के हिस्से आयीं।   

कई बार समाज को तोड़ने की कोशिश साजिशन भी होती है जब राजस्थान में इंडियन मुजाहिदीन के नाम से धमकी भरे मेल भेजने वाला व्यक्ति हिन्दू ही निकला और पश्चिमी यूपी में मंदिर में गाय और मस्जिद में सुवर का मांस फेकने वाला भी हिन्दू शख्स ही निकला लेकिन आज की गर्म हवा में किसी को विचार करने की फुर्सत नहीं कि कोई उन्हें इस्तेमाल कर रहा है, बस नफरत की धार और तेज़ हो जाती है। दोनों समुदायों के लोग इतने तैयार हैं के ज़रा सी चिंगारी भड़के और वे आग लगाने चल दें। ऐसे माहौल में एकता और भाई चारे की बातें सिर्फ खादी  धारियों की ओर से ही सुनाई पड़ती हैं लेकिन वे सिर्फ टीवी, अख़बार में ही प्रवचन देते हैं, जिनका एकमात्र लक्ष्य कुर्सी तक पहुँच बनाना ही होता है वरना देश में सेकुलरिज़्म का सबसे ज्यादा ढिंढोरा पीटने वाली गांधी पार्टी बताये कि लोगों में एकता बनाये रखने के लिए ज़मीनी स्तर पर उसने कौन से प्रयास किये?
भले समाज में विभेद पैदा करने वाली गर्म हवा अपने अस्तित्व का आभास दे रही हो और 'हम सब एक हैं और हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई भाई' जैसे नारे अप्रासंगिक लगने लगे हों मगर अब भी बहुत कुछ बाकी है।  किसी भी समाज की कामयाबी और तरक़्क़ी के लिए सामाजिक एकता को सर्वोपरि मानने वालों को फिर से अपनी वाणी मुखर करनी होगी और आगे आना होगा। हमें तय करना होगा कि हम फिर से कब सोचना शुरू करेंगे कि समाज का यह विघटन हमें अंततः विनाश ही की ओर ले जायेगा। जीवन में और भी समस्याएं हैं, और भी लक्ष्य हैं जो हमारे समय और ऊर्जा के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं लेकिन हम अपना समय और ऊर्जा उस धर्म की लड़ाई में व्यर्थ करते हैं जो धर्म सिर्फ इसलिए होता है कि हमें मुक्ति का मार्ग दिखा सके -- हमें सदाचरण और सन्मार्ग से ईश्वर तक पहुंचा सके। जो हम आज कर रहे हैं -- क्या वाकई वो ईश्वर को पसंद आएगा? क्या वाकई उससे मोक्ष मिलेगा


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