हॉट वार
हॉट वार
पूरी दुनिया में आज जो अशांति और संघर्ष का दौर चल रहा है, उसमे भावनाएं बहुत ज्यादा फुटेज लेने लगी हैं। इन आत्मघाती भावनाओं के अतिरेक में हम किसी के भी पक्ष-विपक्ष में समर्थन या विरोध में बड़ी आसानी से खड़े हो जाते हैं। ज़रा कुछ तथ्यों पर गौर फरमाइए...
20 साल पहले तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर रूस जर्मनी और ब्रिटेन की हथियार कंपनियों का बोलबाला था, लेकिन आज हथियार आपूर्ति
के बाज़ार पर अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व है। यह अरबों डॉलर का व्यवसाय अमेरिकी इकॉनमी
को भी सपोर्ट करता है और CIA नमी अमेरिकी एजेंसी पूरी दुनिया में पाँव फैलाये अब एक
ही लक्ष्य पर काम करती है। अब कोल्ड या हॉट वार वाला दौर तो रहा नहीं, जब बड़े देश एक
दूसरे की जासूसी या जंग की फ़िराक में रहते थे और CIA के पास बड़े काम रहते थे। अब नये
दौर में नई रणनीति के हिसाब से चलते हुए वे दुनिया के हर उस मुल्क में आंतरिक संघर्षों
को उभारते हैं जहाँ अमेरिकी हितों की थोड़ी सी भी गुंजाईश हो, या उनकी हथियार कंपनियों
के लिए बाजार खड़ा हो सके। इस्लामिक आतंकवाद उनका सबसे बड़ा हथियार है, जिसकी शुरुआत
उन्होंने तब की थी जब अफ़ग़ानिस्तान पर रूस का कब्ज़ा था और वे तालिबान को खड़ा कर रहे
थे। इसके बाद ये सिलसिला बढ़ते हुए पाकिस्तान, कश्मीर, नाइजीरिया, अल्जीरिया, सीरिया,
इराक और यहाँ तक के रूस को चोट पहुँचाने के लिए यूक्रेन तक पहुंचा।
इस सिलसिले में इस्लामिक चरमपंथ के
नाम पर सऊदी अरब जैसे अमीर मुस्लिम देशों से स्पॉन्सरशिप मिल जाती है और अलग अलग मदों
के नाम पर हासिल फण्ड भारी पैमाने पर हथियारों की खरीद पर लगाया जाता है। इन हथियारों
से संघर्ष शुरू होता है और बिग डैडी अपने लाव लश्कर समेत वहां हस्तक्षेप करने पहुँच
जाता है ताकि न सिर्फ वहां के शासन में घुसपैठ
करके उनके प्राकृतिक संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी स्थापित कर सके, बल्कि उनकी सुरक्षा
में अपने सैनिक साज़ो सामान बेचने वाले समझौते भी कर सके।
क्या अफ़ग़ानिस्तान से लेकर ईराक़, सीरिया
तक में यही नहीं हुआ? IS कैसे इतना ताक़तवर हो गया कि अमेरिका भी उसके आगे बौना साबित
हो— यह मजबूरी असल में ढोंग है। ध्यान रहे कि IS के
प्रकोप से बचने के लिए अपनी सुरक्षा की खातिर सऊदी अरब ने अमेरिका से कई अरब डॉलर का
हाल ही में समझौता किया है। सोचिये किसने चाँदी काटी? IS का हौवा न खड़ा होता तो क्या
यह चाँदी काटी जा सकती थी? अभी IS के फैलाव के साथ ही जॉर्डन, क़तर, यमन, बहरीन आदि
का भी यही हाल होना था जो अपनी सुरक्षा के लिए बिग डैडी अमेरिका के हाथों लुटते, लेकिन
बीच में रूस ने टंगड़ी मार दी।
सोचिये कि नाटो, जो कि भले अंतर्राष्ट्रीय
संगठन हो पर अमेरिकी सरपरस्ती में ही चलता है— वही कार्रवाई
सीरिया ईराक़ में करे तो ठीक पर पुतिन के दखलअंदाज़ होते ही अमेरिका, तुर्की, ब्रिटेन
सभी की भौहें चढ़ गयीं कि रूस ठीक नहीं कर रहा है। ऐसा नहीं है कि रूस कोई देवदूत है
और नेकनीयती से सीरिया को बचाने की मुहिम में
लगा है... अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी नेतृत्व में होती इस “अरब लूट” में
उसे भी तो हिस्सेदारी चाहिए। उसने सीरिया के बशर अल असद से हाथ मिला लिया और बिग डैडी को
ठेंगा दिखा दिया।
बहुत से लोगों ने उम्मीद कर ली है
कि अब पुतिन इस्लामिक आतंवाद का खत्म कर देंगे— लेकिन वे
भी भावनाओं के मारे हैं। रूस इतना सक्षम होता तो न उसके टुकड़े होते और न चेचेन्या,
यूक्रेन जैसी समस्यायें पैदा होने देता... यकीनन उसकी उपस्थिति इस खेल को ख़त्म करने की नहीं, क्योंकि खेल ख़त्म
हो गया तो सबकी हथियार विक्रय की दुकाने बंद हो जाएँगी, बल्कि यह जताने की है कि उसके
पास भी बिग डैडी जैसी जबरन हावी होने की क्षमता
है और उसके पास भी जंगी साज़ो सामान बनाने वाली फैक्टरियां हैं। यानी जंग के मार्किट
में वो भी विक्रेता है— जिससे इस
"अरब लूट" का ज्यादातर हिस्सा बिग डैडी को न जाये और यकीनन सीरिया ईराक़ में रूसी कार्रवाई के बाद हालात बदलेंगे। यही मौजूदा
वक़्त में ओबामा की सबसे बड़ी चिंता है। रहा
इस्लामिक आतंकवाद तो वो तो हथियारों के सौदागरों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी
है, उसे भला कौन ज़िबह करेगा?
कुछ ऐसा ही खेल ऐसे ही परिदृश्य में
पाकिस्तान के साथ भी खेल जाता है। यहाँ भारत एक उभरती महाशक्ति है—
यह न सिर्फ चीन के लिए बल्कि अमेरिका के लिए भी चिंता का विषय है...
किसी भी देश की रफ़्तार रोकने का सबसे अच्छा उपाय है के उसे आंतरिक संघर्षों में उलझा
दो। सीधे तौर पर तो न अमेरिका ऐसा करता दिखेगा न चीन—
दिखावे के लिए हिंदी चीनी भाई भाई और मोदी ओबामा भाई भाई के नारे
भी उतने ही ज़रूरी हैं, क्योंकि दोनों देशों के लिए भारत एक बड़ा बाजार भी है। ऐसे में
भारत पर लगाम लगाने के लिए पाकिस्तान की मदद ली जाती है और पाकिस्तान इसकी भारी कीमत
वसूलता है, वरना दूसरों के आतंकवाद पर फ़ौरन नज़रें टेढ़ी करने वाला अमेरिका पाकिस्तान
को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अपना रणनीतिक साझीदार न बताये। सोचिये कैसा दोहरापन है?
पाकिस्तान भी अपनी उपयोगिता जनता है कि जब तक वो मोहरे की तरह इस्तेमाल होता रहेगा
उसे चीन अमेरिका से आर्थिक सामरिक मदद मिलती रहेगी और भारत के खिलाफ हाय तौबा मचाने
पर अमीर मुस्लिम देशों से पैसा... जिस दिन उसने भारत के साथ सम्बन्ध सुधर लिए, उसकी
उपयोगिता ख़त्म हो जाएगी और वो रस निकले गन्ने की तरह निरर्थक हो जायेगा... उन हालात
में उसका दिवालिया होकर दो तीन टुकड़ों में बंट जाना निश्चित है। ऐसे में आप पाकिस्तान
से सम्बन्ध सुधरने की उम्मीद करते हैं तो आप मूर्ख हैं।
आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि जब हर तरफ
ऐसी भयंकर सांठगाठ है तो यह एक दूसरे को मारते क्यों हैं... तो उसका जवाब है भाई कि
सैनिक, जेहादी लड़ाके या आप जैसे समर्थक, विरोधी— सब इस शतरंज
की बिसात पर सिर्फ मामूली मोहरें हैं, असली खिलाडी वजीर और बादशाह हैं और वे अपने हितों
के हिसाब से चालें चलते हैं, उन्हें मोहरों के मरने पिटने की फ़िक्र कब होती है?
इसीलिए अपनी भावनाओं को रिफ्रेश कीजिये—
किसी के पक्ष विपक्ष में खड़े होने से पहले तथ्यों को जाँचिए परखिये।
आप सिर्फ मोहरें हैं, जिन्हे इस खेल में ईन्धन की तरह प्रयोग किया जाता है, जब तक आप
अपनी भावनाओं से किनारा करके आप खुद को ईन्धन बनने से नहीं रोकेंगे, यह खेल ऐसे ही
जारी रहेगा।
Post a Comment