धर्म यात्रा 4

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कुरान से क्या वाकई छेड़छाड़ हुई थी

बहरहाल कुरान पर विवाद तो थे ही जो मुसलमानों के एक गिरोह (बनी कुरैश से संबंधित) ने उस्मान के घर पर हमला कर दिया था और उनकी घेराबंदी कर ली थी— उस भीड़ के इल्जामों में एक इल्जाम कुरान में मिलावट का भी था और उन्होंने तलवारों के वारों से खलीफा उस्मान को कत्ल कर डाला था।
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Uthman's Painting

  इसके बाद अगली छेड़छाड़ हज्जाज बिन यूसुफ के वक्त में हुई— इस पर भी कई विवाद हैं। बावजूद इन सब सुधारों के कुरान के मूल कंटेंट में एक चीज मिसिंग है कि सूरह फातिहा (यह दुआ है जो मूल कंटेंट से नहीं हो सकती, क्योंकि खुदा खुद से तो दुआ मांगेगा नहीं) के सिवा बाकी चैप्टर्स में सीधे-सीधे संदेश हैं... यानि यह तय करना मुश्किल है कि किससे, किस विषय में, किसके लिये कहा जा रहा है तो उसमें ब्रैकेट की गुंजाइश बना ली गयी और यूं आयतों की तफसीर में भी कई जगह भेद पड़ गया।

  मतलब देवबंदियों का गिरोह इन्हीं आयतों से मजारपरस्ती को हराम करार दे लेता है और बरेलवियों का गिरोह उन्हीं आयतों से मजारपरस्ती, शख्सियत परस्ती (रसूल की) को जायज करार दे लेता है— इसके सिवा भी ब्रैकेट का प्रयोग नये उपलब्ध ज्ञान और विज्ञान को समाहित करने के लिये भी किया गया।

क्या इस्लाम तलवार के जोर पर फैला

  मुसलमानों पर अक्सर एक इल्जाम आयद होता है कि इस्लाम तलवार के जोर पर फैला— यह प्रकारांतर से वैश्विक सच्चाई तो है लेकिन भारत के संदर्भ में फिट नहीं बैठती... हां भारत में भी बाकी जगहों की तरह हुकूमत जाहिर है कि तलवार के जोर पर ही हासिल की गयी थी।
  भारत में मुख्य रूप से इस्लाम फैलने के तीन कारण थे— सबसे मुख्य जातिगत शोषण, फिर सूफीज्म वाले उदार इस्लाम का प्रभाव और तीसरे मुस्लिम बादशाहों या मुगलों के शासन काल में रियायतों, सुविधाओं, पद, शक्ति और वर्चस्व का लालच। भारत के संदर्भ में यह कहना गलत है कि तलवार के जोर पे फैला।

  लेकिन बाकी जगहों में यह वैश्विक सच्चाई है। प्रोफेट के मदीने हिजरत के बाद से ही यह लड़ाइयां शुरू हो गयी थीं जो लोगों को इस्लाम के दायरे में लाने के लिये थीं और रसूल की वफात के बाद हजरत अबू बक्र ने भी अरब में इस्लाम के सिवा बाकी धर्मों के खात्मे के लिये एक अभियान चलाया था जिसमें ‘मुस्लिमा’ जैसे स्वघोषित पैगम्बर और कई छोटे-मोटे धर्म खत्म किये गये थे। बाद में ताकत आई तो इसका विस्तार अरब से ले कर सिंधु तक हुआ।

  जहां प्रोफेट के जीवन में ही अरब क्षेत्र को इस्लाममय कर लिया गया था वहीं 632 से ले कर 661 तक कायम रही रशिदुन खिलाफत (अबु बक्र, उमर, उस्मान, अली) ने अरब के बाहर आसपास के इलाकों में अपनी हुकूमत कायम कर ली थी और उनके बाद मुआविया के दौर में 661 से कायम हुई उमय्यद डायनेस्टी ने चौदह वंशानुगत शासकों के साथ 750 तक इस इस्लामिक साम्राज्य उत्तरी अफ्रीका, स्पेन से ले कर सिंधु तक, लगभग 38-39 देशों तक फैलाया।
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Early Battles of Islam

  उनके बाद फिर एक दौर 750 से  कायम अब्बासी डायनेस्टी का रहा— जो 1257 तक कायम रहा... साथ ही 921 से 1171 के बीच अरब, इजिप्ट से ले कर माल्टा, इटली तक कई देशों में फातिमी शासन रहा— और उसके बाद एक दौर आया 1299 से शुरू हुए उस्मानिया साम्राज्य (ऑटोमन) का, जिसने 1923 के बीच योरप, एशिया और अफ्रीका के लगभग 48 देशों में सत्ता स्थापित की जिसका अंत औपनिवेशिक काल में हुआ।

  इस सबके बीच लाखों यहूदी, इसाई और दूसरे धर्मों के लोग मारे गये और लाखों लोग मुसलमान हुए तो तलवार के जोर वाली धारणा शायद इस वजह से फैली हो।  

हज़रत अली और  हजरत आयशा दोनों आपस में लड़ कर भी सही थे?

  बहरहाल अगर हम बात इस्लाम की करें तो एक भयंकर विरोधाभास आपको यहां मिलेगा। आम हालात में आपके सामने कोई जंग हो, जिसमें लाशों के ढेर लग जायें तो आप स्याह सफेद में से एक के पक्ष में तो खड़े होंगे— दोनों में से एक को तो गलत ठहरायेंगे, लेकिन मुसलमानों ने दोनों के पक्ष में खड़े होने का कारनामा कर के दिखाया है— यानि यह माना है कि जंग करके लाशों के ढेर लगाने के बाद भी दो लोग सच और हक पर थे।

  हजरत उस्मान की हत्या के वक्त उनकी सुरक्षा में अली के बेटे भी तैनात थे— जिससे एक इल्जाम उन पर यह भी आया कि कातिल उन्हीं के लोगों में से थे जिन्हें खलीफा बनने के बाद हजरत अली सजा देने के बजाय बचाने की कोशिश करते रहे और इसी आधार पर आगे पहले हजरत आयशा ने 656 में उनके साथ जंगे जमल (ऊंटों की लड़ाई), लड़ी... जिसमें एक अनुमान के मुताबिक तेरह हजार हजरत आयेशा की तरफ से और पांच हजार (आंकड़े अनुमानित) अली की तरफ से लोग मारे गये। अंदाजा लगाइये कि यह दोनों सास दामाद थे और सारे मरने वाले मुसलमान— लेकिन बकौल मुसलमान यह दोनों हक पर थे। एक उम्मुल मुस्लिमीन और एक इस्लामी खलीफा।
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Battle of Siffin

  इसके बाद फिर इसी मसले पर मुआविया ने 657 में हजरत अली से जंगे सिफ्फीन (सीरिया) लड़ी— जिसमें 65000 (पुष्टि नहीं) लोग मरे और घायल हुए... यहां भी मुसलमान दोनों में से किसी को गलत नहीं मानते और अली के बाद मुआविया खलीफा बने। इन मामलों में शिया फिर भी एक स्टैंड पर टिक कर अली के सिवा बाकी सबको गलत मानते हैं।

शुरूआती इस्लाम का इतिहास ही हिंसा से भरा हुआ है

  एक विडंबना यह भी देखिये कि रसूल की मौत को लेकर दो धारणायें हैं— एक तो यह कि उन्हें जहर दिया गया था, जिसके जेरे असर वे धीरे-धीरे मौत के मुंह तक पंहुचे... दूसरी कि वे किसी रहस्यमयी बुखार (वे लंबी बीमारी लिखते हैं) का शिकार हो कर— फिर बेटी हजरत फातमा के घर हमला हुआ, जिसका इल्जाम भी रसूल के खास साथियों पर है, जहां हजरत फातमा इस कदर घायल हुईं कि मिसकैरेज हो गया और जल्द ही उनकी भी मौत हो गयी... एक धारणा के मुताबिक यहां तक कि उन्होंने वसीयत भी की थी रसूल के उन खास साथियों को लेकर कि वे उनकी मय्यत में न आयें।
  पहले खलीफा अबू बक्र चूँकि बड़ी उम्र के थे, जल्द ही नेचुरल मौत मरे लेकिन बाद के खलीफाओं में हजरत उमर को कत्ल किया गया, हजरत उस्मान को कत्ल किया गया, हजरत अली को कत्ल किया गया... वह भी उनके घर, मस्जिद में, नमाज पढ़ते में— नवासों में हसन को जहर दे कर मारा गया, हुसैन को कुनबे समेत करबला में मारा काटा गया... यह सब खुदा के खासुलखास लोग थे लेकिन मजाल है जो खुदा ने कोई मदद की हो।

  करबला के बाद यजीद की सेना ने मक्का और मदीना पर चढ़ाई कर दी— हजारों लोग कत्ल किये गये, ढेरों सहाबी मारे गये, लिटरेचर जला दिया गया, औरतों से बलात्कार किये गये, काबे को नुकसान पंहुचाया गया, नबी की मस्जिद को ऊंटों का अस्तबल बना दिया लेकिन खुदा ने कहीं भी कोई मदद नहीं की— हां ऐसी बातों के लिये हर मौके पे फिट टेलरमेड जुमला सुन लीजिये कि खुदा की मसलहत थी, आजमाइश थी। मजे की बात यह है कि इतना सब होने के बाद भी उमय्यद सल्तनत के खिलाफ कोई बगावत न हुई, उमय्यद को इस्लाम से खारिज न किया गया और आज भी उमय्यद के पूरे काल को इस्लामिक शासन ही कहा जाता है।
  आज की तारीख में मुहम्मद साहब का कार्टून भी कोई बना दे तो चाहने वाले खून खराबा करने पंहुच जाते हैं लेकिन अतीत में उन्हीं प्रोफेट की बेटी के घर हमला हुआ— उनके दामाद को कत्ल किया गया, मुआविया ने हसन से किया करार तोड़ा, नवासे को कत्ल किया गया लेकिन मजाल है कोई बम बन कर दगने पंहुचा हो... बड़ी मासूमियत से उन घटनाओं को जस्टिफाई करने के लिये कहानियाँ बना ली गयीं और ले दे के बिल बस यजीद के नाम पर फाड़ दिया गया।
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Early Battles of Islam

  बावजूद इसके यजीद का एक्सेप्टेंस देखिये कि जैसे आज मुसलमान यजीद के नाम पे नाक भौं सिकोड़ते हैं तब कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि उसी उमय्यद सल्तनत में यजीद द्वितीय  (720-724) और यजीद तृतीय (744) भी बादशाह हुए और बाकायदा स्वीकार भी किये गये।

क्या हदीसें इस्लाम का सच्चा इतिहास हो सकती हैं

  अब अंदाजा लगाइये कि इन सब हालात के बीच दो ढाई सौ साल तक (सातवीं शताब्दी से ले कर नौवीं शताब्दी तक) जनश्रुतियों में जो उस अतीत से जुड़ी बातें तैरती रहीं (जिन्हें बाद में हदीसों में लिखा गया) वे मिलावट और झूठ से कितनी पाक साफ बची होंगी?

  जब इन बातों को नौवीं शताब्दी में कलमबद्ध किया गया तब छः लाख के लगभग ऐसी कहानियाँ थीं जो जनश्रुतियों में तैर रही थीं— ज्यादातर लोगों ने अपने किसी फायदे या स्वार्थ के लिये गढ़ रखी थीं, जिनमें से 90% से ज्यादा खारिज करके बाकी जिन्हें लिखा गया उनकी भी क्या गारंटी है कि वे मिलावट रहित और एकदम सटीक हैं?
  बहरहाल हदीस कलेक्शन के रूप में सही बुखारी (7225), सही मुस्लिम  (4000), तिर्मिजी (3891), अबू दाऊद (4800), इब्ने माजा (4000), अन नसाई (5662) मान्य ग्रंथ हैं और साथ ही एक दिलचस्प इत्तेफाक यह है जो बीवी रसूल के साथ तेईस चौबीस साल रहीं, उनकी चुनिंदा बातें हैं और जो आयेशा कुछ साल ही साथ रहीं, उनकी सबसे ज्यादा हदीसें हैं।

क्रुसेड ईसाईयों का जिहाद है

  यूँ तो खूनखराबे के लिये मुसलमान ज्यादा बदनाम हैं लेकिन ईसाइयों ने कम कत्लेआम नहीं किया। अगर इस्लाम के अवतरण से पहले योरप में मची मारकाट को दरकिनार भी कर दिया जाये तो भी धर्म के नाम पर ईसाईयों ने क्रूसेड वार्स में ही अपनों और परायों की लाशों के ढेर लगाये हैं।

  जैसे भारत में राम जन्म भूमि मुक्तिकरण के नाम पर आंदोलन चला था— वैसे ही वे चौथी शताब्दी में कौंटेस्टाईन की मां द्वारा ईसा की समाधि पर बनवाये गिरजाघर को मुसलमानों से पाने के लिये युद्ध करते थे जो रशिदुन खिलाफत में 636 से उमर द्वारा अपने कब्जे में ले लिया गया था। इसके सिवा उनके क्रूसेड (धर्मयुद्ध) का एक कारण वहां सम्राटों से शक्तिशाली पोप के प्रभुत्व स्थापित करना भी था।
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First Crusade

  पहला क्रूसेड 1096 में हुआ जिसमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया, लेकिन दो भागों में बट कर... एक समूह अतिवादी जनसाधारण की भीड़ का, जो अपनी हरकतों के कारण ज्यादातर तुर्कों के हाथों मारे गये। दूसरा दल कुशल सामंतों की सेनाओं का था जिन्होंने 1099 में जेरूसलम पर अधिकार कर लिया और मुसलमानों, यहूदियों की लाशें बिछा दीं।

  1144 में मोसुल के तुर्क शासक इमादुद्दीन जंगी ने इसी क्षेत्र की एदेसा काउंटी पर फिर कब्जा कर लिया और पोप से सहायता मांगी गयी— संत बर्नार्ड ने क्रूसेड का एलान कर दिया। फ्रांस के राजा लुई सेवेंथ और जर्मनी के कोनराड थर्ड तीन लाख की सेना के साथ युद्ध के लिये निकले... अगले तीन साल तक दोनों तरफ के हजारों सैनिक गंवाने के बाद भी नाकामी हाथ लगी।
  जबकि तुर्की साम्राज्य में उभरे सलाहुद्दीन ने 1187 में जेरूसलम पर हमला करके कब्जा कर लिया— जिसके खिलाफ फिर धर्मयुद्ध का आह्वान किया और इंग्लैंड, जर्मन और फ्रांस के राजाओं ने हिस्सा लिया और कई साल चले हजारों जाने लीलने वाले इस युद्ध में भी कामयाबी न मिली।

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