आस्था बनाम तर्क 7

आस्था बनाम तर्क

इस्लामिक इतिहास काफी विरोधाभासी रहा है

इस्लामिक इतिहास की तीन तरह की डिटेल उपलब्ध हैएक वह जो सुन्नियों की हदीसों में मिलती है, दूसरी शियाओं की और तीसरी मुस्लिम इतिहासकारों की। कई जगहों पर तीनों समान हैं तो कई जगहों पर दो समान हैं और कई प्वाइंट्स पर तीनों में मतभेद हैंखासकर हजरत आयेशा से संबंधित हदीसों में ही बड़ा भयानक विरोधाभास है।
  
हकीकत कुछ भी रही हो, लेकिन यह तय है कि उस वक्त जो भी लिखा गया था, वो नष्ट हो गया या कर दिया गया और फिर जो भी लिखा गया, वह दो सौ साल के बाद लिखा गया। यह बहुत लंबा वक्त होता हैचार से पांच पीढ़ियां गुजर गयीं थीं इस बीच, और सीना ब सीना बातें आगे बढ़ी थीं।
  
मानवीय क्षमताओं को परखना हो तो अपनी तरफ से एक रसूल से ही जुड़ी हदीस बनाइये, उसे लिख लीजिये और अपने किसी अज़ीज को सुनाइये और उससे कहिये कि न सिर्फ वह इसे दोहराता रहे बल्कि दूसरे तक भी पंहुचाता रहे...
आस्था बनाम तर्क
route of  Hearsay
  
फिर ठीक एक साल बाद जिस तक वह बात पंहुची हो, उनसे वह बात सुनिये और अपने लिखे से मिलाइयेह्यूमन लिमिटेशन आपके सामने आ जायेगी। इंसान किसी बात को एग्जेक्ट नहीं याद रख सकता, और जिस हिस्से को भूलता हैखाली स्पेस भरने के लिये उस हिस्से में अपनी बनाई वह बात भर देता है जो उसे सही लगेऔर इसी तरह चलते-चलते बात अपना मूल स्वरूप खो देती है।
  
तो दो सौ सालों तक इसी तरह जुबानी खर्च के तौर पर जो बातें आगे बढ़ती रहींउनकी कोई गारंटी नहीं कि वे कितनी सच हैं, कितने प्रतिशत सच हैं या किस हद तक झूठ हैं... एक तरह से यह कह सकते हैं कि वे सच भी हो सकती हैं और झूठ भी, लेकिन उनके लिये दावे नहीं कर सकते कि वे सच ही हैं।
  
क्योंकि दावे करेंगे तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि सुन्नी, शिया और इतिहासकारों में से किसकी, कौन सी बात सच है... सच तो एक ही होगा न, तीन अलग-अलग सच तो नहीं होंगे। मजे की बात है कि इन्हीं किताबों के पीछे नफरत है, कट्टरता है, ऊलजुलूल नियम हैं और खूनखराबा है।

क्या वाकई लोग खुदा का खौफ खाते हैं

एक चीज़ होती है खुदा का खौफ...अपने आसपास आपने इसे जरूर महसूस किया होगाखुदा का खौफ, खुदा की मुहब्बत, खुदा के नबी की मुहब्बत! यह वे भंगिमायें हैं जो हर मुसलमान पर गालिब दिखती हैं। इसका असर साफ तौर पर आप अपने आसपास की जिंदगी में या सोशल मीडिया पर महसूस कर सकते हैंजहां खुदा, खुदा की किताब या खुदा के रसूल को ले कर कोई भी ऐसी बात जो आहत करने की ताकत रखती है, मुस्लिम युवाओं को ऐसे उकसा देती है कि न सिर्फ वे गाली गलौच, ट्रोल पे उतर आते हैंबल्कि आपकी जान लेने तक के ख्वाहा हो जाते हैं... और दुनिया के दूसरे हिस्सों मेंजहां उनकी पेश चल सकती है, उन्होंने ऐसा कर के दिखाया भी है।
  
अब यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई इस्लाम के इन अलम बरदारों को खुदा का खौफ है, उससे मुहब्बत हैउसके नबी की सीरत से कोई लगाव है? आइये इतिहास से ले कर वर्तमान तक इसके अक्स तलाशते हैं।
  
चलिये नबी की हयात में जो भी हुआ उसे इस्लाम फैलाने की गरज से 'खुदा के खौफ' की परिधि से बाहर मान लेते है, लेकिन उनकी वफात के बाद जो हुआउस पर नजर डालिये। बेटी फातिमा के घर हमला हुआ, यहां तक कि उनका हमल भी गिर गया और वालिद के इंतकाल के कुछ महीनों बाद ही वह भी दुनिया से रुख्सत हो गयीं। क्या ऐसा करने वालों को खुदा का खौफ महसूस हुआ होगा? दूसरे खलीफा हजरत उमर पर जानलेवा हमला हुआजिसकी परिणति उनकी मौत की सूरत में हुई... तीसरे खलीफा हजरत उस्मान को घर में घेर कर कत्ल कर दिया गया। बचाव में आगे आई उनकी बीवी की उंगलियां काट दी गयीं। चौथे खलीफा हजरत अली को मस्जिद में कत्ल किया गयाक्या कहीं ऐसा करने वालों को खुदा का खौफ महसूस हुआ होगा?
यह सवाल इसलिये कि यह न सिर्फ खलीफा थे बल्कि बुलंद हैसियत के सहाबी भी थे। आज इनके अपमान के नाम पर भी तलवारें निकल आती हैंतब लोग इन्हें कत्ल होते देखते रहे थे। क्या तब उन देखने वालों को खुदा के इन सिपाहियों से वह मुहब्बत महसूस हुई थी, जो आज के लोग दिखाते हैं?
  
आस्था बनाम तर्क
battle of Karbala
नबी का मर्तबा क्या है, यह बताने की जरूरत नहींलेकिन उनके भाई और दामाद को कत्ल किया गया। एक नवासे को जहर दे कर मारा गया, दूसरे को कर्बला में परिवार के बाकी लोगों समेत कत्ल किया गयाउनकी लाशों को घोड़ों से रौंदा गया, उनके सर कलम करके भालों पे टांग के घुमाये गये... उनकी औरतों की बेहुरमती की गयी, इसके बाद भी बचे खुचे लोगों को लगातार निशाने पर रखा गयाक्या तब भी लोगों के दिलों में नबी और उनके चहेतों के लिये वह मुहब्बत थी कि वे गम से पागल हो कर मरने मारने पर उतारू हो जाते। क्या ऐसा करने वाले मुसलमानों को खुदा के इंसाफ का इल्म नहीं थाया खौफ नहीं था?

बुलंद हैसियत के मुसलमान खुद आपस में लड़ रहे थे

हजरत अली के खलीफा बनने के फौरन बाद ही हजरत आयशा ने उनके खिलाफ बगावत कर दी थी और फौज तैयार कर के बसरा लड़ने पंहुच गयी थीं जहां जंगे जमल के दौरान दस हजार से ज्यादा लोग मारे गये और वह सारे मुसलमान थेक्या कहीं किसी को खुदा का खौफ, उसकी मुहब्बत महसूस हुई होगी? इस लड़ाई के बाद एक मार्का फतेह हुआ तो मुआविया के रूप में दूसरा फसाद हजरत अली के सर आ खड़ा हुआ और खिलाफत के मद्देनजर सिफ्फीन में जंग लड़ी गयी जहां फिर हजारों मुसलमान मौत का निवाला बने और इन दोनों ने ही अली के खिलाफ अपनी जंग को 'जिहाद' करार दिया थाक्या ऐसा करते वक्त इन्हें खुदा का खौफ रहा होगा? या इस्लाम के रुतबे का ख्याल आया होगा?
  
आस्था बनाम तर्क
Battle of Siffin
इस जंग में हालाँकि मुआविया की हार हुई लेकिन वह फिर भी समझौते से मुकर कर सीरिया में अलग सल्तनत कायम करके अपनी हुकूमत चलाने से पीछे न हटे। मिस्र के गवर्नर हजरत अबू बक्र के बेटे मुहम्मद बिन अबु बक्र को गिरफ्तार करके, गधे की खाल में सिलवा कर जिंदा जलवा दिया गया। अली के शासन में आने वाले हिस्से के रहने वाले अली के अनुयायियों को कत्ल करके उनके कटे सर भालों पे लटकाये गये कि दहशत पैदा हो।
  
और अली की मौत के बाद हसन से एक समझौता कर के पूरी हुकूमत हथिया ली और बाद में समझौते से फिर कर गद्दी अपने बेटे यजीद को सौंप दीजिसके साइड इफेक्ट के तौर पर इब्ने जियाद और शिम्र के नेतृत्व में कर्बला अंजाम दिया गया। कर्बला के हादसे के बाद सिर्फ मक्के और मदीने में जो बगावत हुई भी तो वहां मुस्लिम बिन अक़्बा के नेतृत्व में चढ़ाई कर दी गयी और मदीने में कत्लो गारत का बाकायदा खेल खेला गया। ढूंढ-ढूंढ के सहाबी कत्ल किये गये, औरतों की खानाखराबी की गयीजिसकी वजह से सैकड़ों नाजायज बच्चे वजूद में आये, नबी की मस्जिद को घोड़ों का अस्तबल बना दिया गया।
इसके बाद हसीन बिन नुमैर ने मक्के पर हमला किया। काबे को जलाने की कोशिश की लेकिन यजीद की मौत के बाद उसे पीछे हटना पड़ा। यजीद के बाद उसका बेटा कुछ दिन शासक रहा, फिर उमय्यद खानदान के ही मरवान ने सत्ता हथिया ली। मरवान हजरत उस्मान का वही भतीजा था जिसे अहम जिम्मेदारियाँ सौंप कर वह खुद विवाद में घिरे थे और इसी शख्स ने वलीद के दरबार में बुलावे पर पंहुचे हुसैन को कत्ल करने की सलाह दी थी। जबकि मदीने की सरदारी अब्दुल्ला इब्ने जुबैर के हाथ रहते हुसैन के कत्ल का बदला लेने वाले हजरत मुख्तार, कभी साथ में लगाये गये 'इंतकाम-ए-खूने हुसैन' के नारे को भूल कर आपस में ही लड़े और फिर मुसलमानों की ही लाशें गिरीं।
  
जबकि आगे चल कर मुख्य रूप से उमय्यद सल्तनत के रूप में मरवान के वंश का ही शासन रहा जो कि 750 ई० में अब्बासियों के हाथ खत्म हुआऔर इस पूरे काल को इस्लामिक हुकूमत ही कहा जाता है।

अबू ताहिर अल जन्नबी ने काबे को तहस-नहस किया था

आस्था बनाम तर्क
Abu Tahir Al-Jannabi
इसके बाद 930 में एक योद्धा अबू ताहिर अल जन्नबी ने मक्का पर अटैक किया और काबे को लूट कर तहस नहस कर दिया। हजारों हाजियों को कत्ल कर के आबे जमजम का कुआं भर दिया। संगे अस्वद को उखाड़ कर अल हिसा ले गयाजहां उसने पत्थर को नापाक किया... बाईस साल तक संगे अस्वद की गैर मौजूदगी की वजह से हज न हो सका। 952 में फातिमी हुकूमत ने भारी उजरत दे कर संगे अस्वद वापस हासिल कर के काबे में स्थापित किया।
यानि रसूल के आंख बंद करने के फौरन बाद से ही मुसलमानों के बीच आपस में ही कत्लो गारत का सिलसिला लगातार चलता रहा और लोग उन बुलंद हैसियत के लोगों की लाशें गिराते रहें जिनके अपमान के नाम पर भी आज के लोग तलवारें निकाल लेते हैंकहीं दिखता है आपको उनमें खुदा का खौफ, नबी से मुहब्बत... उनके खानदान से मुहब्बत? या दिखता है इस बात का अहसास कि कोई खुदा है जो हर गलत अमल की सजा देगा और वे उस खौफ को महसूस कर पाये हों? जबकि लगातार चले कत्लो गारत के उस दौर में एक मुसलमान ही दूसरे मुसलमान की गर्दन काटता रहा।
  
इतिहास से निकल कर वर्तमान में आइयेयह जो खुदा के खौफ की दुहाई देते हैं, खुदा और नबी की मुहब्बत का दम भरते हैं... क्या वाकई में सच बोलते हैं? चलिये खुदा या इस्लाम के नाम पर खूनखराबा, आतंकवाद फैलाने वालों को 'बहका हुआ' मान कर किनारे कर दीजिये और आम मुसलमानों पर आइयेअगर वाकई में इन्हें खुदा और जहन्नुम का खौफ है, और वे इस बात का यकीन करते हैं कि वाकई कोई खुदा है जो उनके हर बद आमाल की सजा आखिरत में देगा तो फिर सोचिये कि वे लोग कौन हैं जो इस सच को जानने के बाद भी झूठ बोल रहे हैं? खुदा की तरफ से मनाही के बावजूद फरेब, मक्कारी, बेईमानी में लिप्त हैं।
कोई शराब पी रहा है, कोई जुआ खेल रहा है, कोई लड़कियों के साथ फ्लर्ट कर रहा है, कोई मोबाईल पर पोर्न देख रहा है, कोई औरतखोरी कर रहा है, कोई बिजली चोरी, टैक्स चोरी कर रहा है, कोई किसी का मकान कब्जाये बैठा है, कोई किसी की दुकान कब्जाये बैठा है... कितने ऐसे मुस्लिम मिलेंगे आपको, जो इनमें से किसी भी एब से लिप्त न हों? उंगली पे गिनने लायक.. क्यों करते हैं यह ऐसाजाहिर है कि इन्हें न खुदा से मुहब्बत/खौफ है न नबी की सीरत का लिहाज।
  
क्योंकि दोनों में से कुछ भी होता तो एक झूठ बोलते इनकी जुबान कांप जातीकिसी गैर लड़की को देखते ही निगाह झुक जातीपोर्न देखते वक्त शर्म से मर जातेचोरी करते वक्त हाथ कांप जाते और बदकारी करते वक्त जमीर धिक्कार कर पस्त कर देताकिसी का हक मारते वक्त धड़कनें रुक जातीं... लेकिन कहीं ऐसा होते देखा है आपने? यह सब कुछ अगर धड़ल्ले से हो रहा है तो जाहिर है कि खुदा के खौफ या मुहब्बत, नबी से मुहब्बत और लगाव के इनके दावे झूठे और खोखले हैं।
  
लेकिन फिर भी शोर मचाना जरूरी है कि यह खुदा और रसूल का इतना पास रखने वाले हैं कि अगर किसी ने उनकी शान में गुस्ताखी की तो उसे गालियां देने, ट्रोल करने, उसकी गर्दन उतारने, गोलियों से छलनी कर देने या खुद बम बन कर फट जाने से पीछे नहीं हटेंगे।

शरीयत क्या है

इसी तर्ज पर शरा हैशरा यानि शरीयत, यानि इस्लामिक क़ानून व्यवस्था, जिसकी पैरोकारी तो हर मुस्लिम करता मिलेगा और इसे दुनिया की सबसे बेहतरीन कानून व्यवस्था ठहरायेगा लेकिन जब अमल खुद पर करने की नौबत आयेगी तो चुपके से कोई न कोई चोर दरवाज़ा ढूंढ लेगा।
  
चलिये थोड़ा समझते हैं इसे... बहुत लंबी जांच या मुकदमेबाजी की इसमें गुंजाइश नहीं होती। तुरत-फुरत फैसले होते हैं— (जल्दबाजी में गलती की गुंजाइश हमेशा रहती है)... चोरी या लूट की सजा के तौर पर सीधा हाथ काट देते हैं। शादी से पहले सेक्स पर सौ कोड़े हैं, शराबनोशी पर पांच सौ कोड़ेहत्या, ड्रग टैफिकिंग, रेप, ब्लास्फेमी, राजद्रोह, आतंकवाद या सरकार विरोधी प्रदर्शन पर सीधे मौत। समलैंगिकता पर मौत की सजा है, एक्सट्रा मैरिटल रिलेशनशिप पर भी मौत की सजा हैलेकिन यह वाली पुरुषों को शायद ही कभी मिलती हो।
सऊदी के शेख कैसी अय्याशी परस्त जिंदगी जीते हैंयह बताने की जरूरत नहीं लेकिन महिलाओं की क्या स्थिति है, इसे यूँ समझिये कि महिला की कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं। उसे पूरी तरह हिजाब में रहना होता है, बस हाथ और आंखें खुली हों, बाल तक न दिखने चाहिये। वह बिना घर के किसी पुरुष सदस्य की मर्जी, साथ के न ड्राइव कर सकती है, न कहीं पब्लिक प्लेस पर जा सकती है, न बैंक अकाउंट खुलवा सकती हैयहां तक कि गैरमर्द से मिल भी नहीं सकतीं। उसे वोट डालने का अधिकार भी हाल ही में मिला है।
 
आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic
 
वहां मैरिटल रेप को रेप नहीं माना जाता। अगर औरत गलत (बदकारी) करती है तो उसे मर्द इस तरह मार सकता है कि उसके चेहरे पर निशान न आयेंमर्द बदकारी करे तो बीवी को यह हक नहीं। अगर औरत का रेप होता है तो दोषी को सजा दिलाने के लिये चार गवाहों की जरूरत पड़ेगी जो कि खुद विक्टिम को अरेंज करने होंगे। अब अगर रेपिस्ट ने अकेले में रेप किया तो वह आराम से बच सकता है।
  
भारत में आतंकवाद के आरोप में दस-दस साल जेल में बंद लोग बेकसूर साबित हो कर छूटते हैंअगर उनका फैसला उसी वक्त करके उन्हें मौत की सजा दे दी गयी होती तो क्या इसकी भरपाई की जा सकती थी? दुनिया भर के देशों में लोगों को झूठे इल्जामों में फंसाना आम है, जो कई बार तो जांच में भी झूठे नहीं साबित हो पाते। ऐसे में अगर पहले ही हाथ काट चुके, संगसार करके या गर्दन काट कर मार चुके शख्स के पक्ष में बाद में किसी तरह यह साबित हो जाये कि वह बेकसूर था तो क्या इसकी भरपाई हो सकती है?
  
शरीयत किसी औरत को जंग में जीत कर बांदी के रूप में किसी भी सामान की तरह उसका इस्तेमाल (बिना निकाह सेक्स करने, बच्चा पैदा करने, गिफ्ट देने) करने की इजाजत देती हैभले आज के परिप्रेक्ष्य में इसकी कोई जरूरत न बची हो लेकिन नियम है तो है, जिसका फायदा आज के दौर में भी तालिबान और आईएस वालों ने भरपूर ढंग से उठाया है। हाँ कहने को आप ढिंढोरा पीट सकते हैं कि इस्लाम ने औरत को आला मकाम दिया हैलेकिन जमीनी हकीकत क्या है, उपरोक्त बातों से आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं।
Written by Ashfaq Ahmad

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