प्रोग्राम्ड यूनिवर्स 8
ब्रह्मांड कितने प्रकार के हो सकते
हैं
यह तो तय है कि हमारे ब्रह्मांड के सिवा और भी ब्रह्मांड हैं
जिन्हें हम देख नहीं सकते क्योंकि वह हमसे बहुत दूर हैं— या
फिर वह अलग आयाम में हैं, जिन्हें हमारी इन्द्रियां महसूस
नहीं कर सकतीं। मल्टीवर्स थ्योरी के अनुसार चार टाईप के पैरेलल ब्रह्मांड हो सकते
हैं।
इनमें पहले टाईप का यूनिवर्स है जिसे टाईप वन यूनिवर्स या
एक्सटेंशन यूनिवर्स कहते हैं— इस कांसेप्ट के अनुसार स्पेस
अनंत है लेकिन इसमें कई ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स हो सकते हैं कि जो प्रकाश की सीमा की
वजह से बंधे हुए हैं... अब चूँकि स्पेस की खुद की कोई सीमा नहीं है तो एक
ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स की कई कॉपीज हो सकती हैं।
मतलब सेम सोलर सिस्टम, सेम पृथ्वी और सेम अशफ़ाक़ अहमद की कॉपी किसी और यूनिवर्स में हो सकती है—
बस दो चेंजेस के साथ कि किसी जगह मैं अभी बच्चा होऊंगा या बुढ़ापे
को ढो रहा होऊंगा... और दूसरे मेरी वह संभावनायें, कि मैं
फलाँ काम कर सकता था लेकिन नहीं कर पाया, जबकि मेरी कॉपी वही
कर रही होगी और जो उसकी अपूर्ण संभावना होगी— वह मैं यहां कर
रहा हूं।
दूसरा है टाईप टू यूनिवर्स यानि बबल यूनिवर्स (बेबी ब्लैकहोल
यूनिवर्स)— इस थ्योरी के हिसाब से यह माना जाता है कि हमारा
ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स असल में एक बुलबुला है और हाइपरस्पेस (एक नदी) में ऐसे ढेरों
बुलबुले तैर रहे हैं। यह एक दूसरे से टकरा कर जुड़ भी सकते हैं और स्पिलिट भी हो
सकते हैं और जब ऐसा होता है तो एक नये ब्रह्मांड का जन्म होता है और इस प्रक्रिया
को बबल न्युक्लियेशन कहते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार अगर दो बबल एक दूसरे को छू
भी सके तो सारे मैटर को दूर फेंक देंगे, जिससे वहां
ऊर्जारहित स्पेस पैदा हो जायेगा और ऐसे कुछ क्षेत्र स्पेस में मौजूद हैं जिन्हें
ले कर इस थ्योरी को मजबूती दी जाती है।
Membrane Universe |
तीसरी थ्योरी है टाईप थ्री यूनिवर्स यानि सुपरचार्ज्ड
मेम्ब्रेन यूनिवर्स की, यह निकला है मेम्ब्रेन थ्योरी से—
यह थ्योरी टाईप टू से ही रिलेटेड है। यह बताती है कि ब्राह्मांड जिस
मैटर से बना है वह एकदम छोटे लेवल पर सॉलिड डॉट नहीं बल्कि अलग-अलग पैटर्न में
वाइब्रेट करने वाली स्ट्रिंग हैं। इस थ्योरी के अनुसार ब्रह्मांड एक चपटे आकार का
टुकड़ा है, जिसे कहा जाता है मेम्ब्रेन— और कहा जाता है कि हमारे जैसे और भी ब्रह्मांड हो सकते हैं जो बिलकुल
आसपास हों। जैसे कई पन्नों वाला अखबार— जिसमें सभी पन्ने
आसपास होते हैं लेकिन हर पन्ने पर कुछ अलग होता है। वैसे ही यह मेम्ब्रेन आसपास
हैं और भयंकर ऊर्जा से वाइब्रेट हो रहे हैं।
इस थ्योरी के अनुसार यह मेम्ब्रेन एक दूसरे से कुछ ऐसे
आयामों से कनेक्ट हो सकते हैं, जिन्हें हम देख नहीं सकते। यह
मेम्ब्रेन एक दूसरे से टकराते रहते हैं और इनके टकराने से होता है बिगबैंग,
जिससे नये यूनिवर्स की उत्पत्ति होती है, जो
टाईप टू यूनिवर्स यानि बुलबुलों के रूप में भी हो सकते हैं।
चौथी थ्योरी है टाईप फोर यूनिवर्स, क्वांटम मैकेनिक्स मेनी वर्ल्ड
की— क्वांटम मैकेनिक्स, जहां बहुत छोटे
पार्टिकल्स की पढ़ाई होती है— यानि इलेक्ट्रान की दुनिया।
इलेक्ट्रान बहुत अजीब तरह से व्यवहार करते हैं— यह एक जगह
होंगे फिर गायब हो कर दूसरी जगह प्रकट होंगे और कभी-कभी एकसाथ दो जगह प्रकट होंगे—
इसलिये हो सकता है कि वे किसी छोटे डायमेंशन से इंटरैक्ट करके ऐसा
संभव कर पा रहे हों। क्वांटम मैकेनिक्स के हिसाब से हर संभव घटना कहीं न कहीं घट
के ही रहेगी— मतलब हमारे ब्रह्मांड के एक हिस्से में अनगिनत
डायमेंशन हैं और हर डायमेंशन में हर संभव घटना घट रही है। उदाहरणार्थ पृथ्वी पर आप
ट्रेन में चाय बेच रहे हैं और सोचते हैं कि आप प्रधानमंत्री बन सकते हैं लेकिन
आपका भविष्य किसी और दिशा में मुड़ जाता है— पर चूँकि यह एक
संभावना है तो हो सकता है कि किसी कॉपी यूनिवर्स में आप प्रधानमंत्री के तौर पर 'मित्रों' को संबोधित कर रहे हों।
यह तो हुई फिजिक्स की संभावनायें और इसके साथ अगर फिलॉस्फी
का मिश्रण करें तो और भी कई संभावनायें बनेंगी।
इंसान की हैसियत इस
ब्रह्माण्ड के हिसाब से कुछ भी नहीं
यूनिवर्स का जो विस्तार बताया— उसे अगर
जूमआउट कर के खुद भी देखेंगे तो पायेंगे कि इस विशाल विकराल ब्रह्मांड में हमारी
कोई हैसियत ही नहीं और हम लगभग इस दुनिया में 'नथिंग'
हैं और ईश्वर को ले कर जो कल्पनायें गढ़ी गयी थीं, वे बेहद शुरुआती दौर की थीं जिस वक्त इंसान को अपने ग्रह का ही ज्ञान नहीं
था— ब्रह्मांड तो उसके लिये बहुत दूर की बात थी।
लेकिन फिर भी— अगर हम उनकी कल्पनाओं को
फिजिक्स की संभावनाओं में समाहित करना चाहें तो किस तरह की तस्वीर उभर सकती है।
Gular Fruit |
एक मॉडल के तौर पर आप गूलर को ले सकते हैं। जिन्होंने नहीं
देखा, उन्हें बता दूँ कि कंचे से थोड़ा बड़ा एक फल होता है और
गूलर के पेड़ पर लदे-फंदे गूलरों के गुच्छे एक तरह से तारों ग्रहों से भरे यूनिवर्स
जैसा नजारा प्रस्तुत करते हैं। इसमें एक तरह के बहुत छोटे कीट रहते हैं। उनका जीवन
चक्र उसी गूलर के अंदर चलता है— वे प्रजनन करते हैं, पैदा हो कर वहीं मरते हैं और यह छोटी सी दुनिया उनका कुल संसार है। अगर आप
अपनी सोच इस कीट में ट्रांसफर कर पायें तो पायेंगे कि उस गूलर से बाहर उसके लिये
कुछ एग्जिस्ट नहीं करता। उसकी सोच ठीक वैसी है, जैसी इंसान
की पृथ्वी पर थी कभी।
तो ऐसे में आप उसे बतायें कि इस गूलर के बाहर भी दुनिया है
जो बहुत बड़ी है। जहां इतने बड़े प्राणी हैं कि उनके एक रोयें पर तुम सब आ जाओगे।
तुम्हारी पूरी दुनिया उनकी उंगली के एक पोर पर आ जायेगी और अपनी जिस दुनिया को तुम
इतना बड़ा समझते हो— दरअसल मात्र एक छोटे से स्थान पर एक पेड़
(ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स के समकक्ष समझिये) पर ही हजारों दुनिया हैं और हजारों
दुनियाओं वाले लाखों पेड़ उस दुनिया में मौजूद हैं... और जितने वक्त में तुम्हारी
पूरी उम्र गुजर जाती है, उतनी देर में उनके कुछ घंटे या दिन
गुजरते हैं— तो शायद वह कीट यकीन नहीं कर सकेगा कि ऐसा भी
कुछ हो सकता है, जबकि यह सच है।
हमारे देखे यूनिवर्स के बाहर क्या है, यह
हम प्रमाणित तौर पर नहीं जानते। हमारे पास बस थ्योरी ही हैं लेकिन एक संभावना के
तहत मान लें कि वाकई यह पूरा ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स एक गूलर ही है तो इसके बाहर जो
भी है, वह (जगह) हमारे लिये या हम उसके लिये क्या हैं।
ग्रेविटी और वक़्त का संयोजन
एक सिंपल उदाहरण से समझिये कि जिस ऑब्जेक्ट का मास जितना
ज्यादा होगा, उसकी ग्रेविटी उतनी ही ज्यादा होगी और वहां
वक्त उतना ही धीमा गुजरेगा। अब कल्पना कीजिये कि यह ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स सिर्फ एक
बबल भर है और यह बबल एक प्लेनेट पर है जहां किसी प्रोग्रामर टीम ने कई ऐसे बबल बना
रखे हैं.. तो उस प्लेनेट का मास क्या होगा और हमारे हिसाब से वहां वक्त की गति
क्या होगी?
अब दूसरे चरण में पृथ्वी पर आ कर आ कर आदिम सभ्यता से ले कर
आधुनिक सभ्यता तक के एक लाख साल लीजिये.. इतना वक्त उस 'मदर
प्लेनेट' पर सिर्फ एक घंटे में गुजरा समझिये.. अब वहां के एक
घंटे और पृथ्वी के एक लाख साल तक के वक्त को कंप्रेस्ड कर के एक बराबर कर लीजिये
और इस प्रोग्राम को बनाने वाली टीम के नजरिये से सोचिये— उन्होंने
इस बीच कई बार आपके इवॉल्यूशन को ट्रिगर किया है, कई बार
अपने एग्जिस्टेंस के सीधे सबूत भी दिये हैं और कई बार सीधे मदद भी की है— लेकिन यह छोटे-छोटे वक्फे हमारे
समय चक्र के हिसाब से हजारों साल के बीच गुजरे हैं।
अब मान लीजिये ऐसा कोई वक्फा हजार साल पहले गुजरा है,
जब इंसानों को कोई समझ ही नहीं थी इन चीजों की। उसने उन
प्रोग्रामर्स के उस एग्जिस्टेंस को ईश्वरीय चमत्कार के रूप में परिभाषित किया और
हजार साल बाद चूँकि हम भौतिक ज्ञान से काफी सम्पन्न हो चुके हैं तो हमें पता है कि
चमत्कार सिर्फ भ्रम होते हैं, तो ऐसे में हम उन्हें झुठला
सकते हैं और प्रोग्रामर्स के एग्जिस्टेंस का अगला सबूत उन्होंने तो अपने अगले ही
सेकेंड या मिनट में दिया है लेकिन हमारे हिसाब से वह समय हजार साल बाद आयेगा—
तो इस बीच हम ब्लैंक हैं। हमारे यह दो हजार साल किसी भी अननैचुरल
ऐक्टिविटीज के बगैर ही गुजरने हैं तो ऐसे में न हम उन्हें समझ सकते हैं और न
फिलहाल हमारी अगली कुछ पीढ़ियां— अगर ऐसा कुछ है तो।
Men in Black Scene |
इसे आप 'मेन इन ब्लैक' के अंतिम सीन से भी समझ सकते हैं जहां पृथ्वी के अंदरूनी दृश्य से जूमआउट
शुरू होता है तो ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स से बाहर निकलने पर पता चलता है कि पूरा
ब्रह्मांड एक बॉल भर है, जिसे एक विचित्र प्राणी (उसका एक ही
अंग दिखाया है) खेल रहा है और खेलने के बाद एक थैली में डाल देता है जहां वैसी ही
और भी बॉल्स हैं।
ईश्वर कोई प्रोग्रामर भी हो
सकता है
इसी चीज को एक और हॉलीवुड मूवी ‘स्पेस
ओडिसी’ में भी दिखाया गया था जहां यह स्थापित करने की कोशिश
की गयी थी कि कोई क्रियेटर या प्रोग्रामर तो है जिसने पृथ्वी पर बेहद शुरुआती दौर
में, जब इंसान एप्स था— एक मोनोलिथ के
माध्यम से उनके इवॉल्यूशन को ट्रिगर किया था और उसने इंसान बनने की ओर पहला कदम
बढ़ाया था। इंसान के इवॉल्यूशन के दूसरे दौर को, जब उसने
स्पेस में पांव निकाले— मोनोलिथ के माध्यम से ही ट्रिगर किया
था, जिससे इंसान का स्पेस में दबदबा हुआ। तीसरे मोनोलिथ से
इवॉल्यूशन के तीसरे चरण को ट्रिगर किया जब इंसान ने वर्महोल जैसे माध्यम से काल और
अंतराल की यात्रा शुरू की— और चौथे मोनोलिथ से इंसान को ही
हायर डायमेंशन में स्थापित किया।
Space Odyssey Concept |
अब यह फिल्म बनाने वाले की समझ थी कि उसने डार्विन की थ्योरी
को त्रुटिपूर्ण स्थापित किया, ब्रेन को यूनिवर्स के सदृश रखा,
मानव भ्रूण, जन्म, पुनर्जन्म
(एनर्जी ट्रांसफर), सबकुछ आपस में जुड़ा और गुंथा बताया.. हम
उनकी कल्पना के तौर पर इसे स्वीकार या नकार सकते हैं लेकिन एक संभावना तो फिर भी
पैदा होती है कि कोई हो सकता है जो न सिर्फ हम पर नजर भी रखता है, बल्कि हमारे इवॉल्यूशन के अलग-अलग चरणों को ट्रिगर कर रहा है।
भेद इस बात में है कि क्या यह ऐन वैसा ईश्वर है, जैसा किवदंतियों में है, किताबों में वर्णित है?
अगर इंसान इन बातों को गहराई से समझने में सक्षम है तो उसका जवाब
सीधे तौर पर इनकार में होगा, क्योंकि उस रचे गढ़े गये ईश्वर
में बहुत त्रुटियां हैं लेकिन यह जरूर हो सकता है कि अगर हम किसी लैब में मौजूद
कोई एक्सपेरिमेंटल प्रोग्राम हैं तो कोई प्रोग्रामर्स की टीम इन माइक्रो
बैक्टीरिया (प्लेनेटरी सभ्यतायें) से भरे बबल बनाने वाली वाकई हो— या वाकई हम हों तो स्वनिर्मित ही लेकिन हमारी हैसियत गूलर के कीड़ों जैसी
हो और उस मदर प्लेनेट पर (जहां यह बबल यूनिवर्स हैं) वैसे लोग हों जो उन पेड़ों को
लगाने वाले हों— यानि हमारे क्रियेटर।
तो प्रकारांतर से वे हमारे ईश्वर हो सकते हैं लेकिन ऐसा कोई
भी कांसेप्ट डिट्टो होना एकदम गैरयकीनी और नामुमकिन है जैसा धर्म के नाम पर लोगों
ने गढ़ रखा है। खुद सोचिये— अगर किसी परीक्षा हाल में हर
धर्म के लोगों को इकट्ठा करके उनसे सही
धर्म और सही ईश्वर के लिये लिखने को कहा जाये तो अपनी जगह वे सभी सही होंगे लेकिन
उन सभी के जवाब एक दूसरे से भिन्न होंगे। इतनी समझ, इतना
ज्ञान होते हुए भी वे उस गलती को करेंगे जिसके बारे में खुद उन्हें भी पता होगा।
यही इंसानी सोच की लिमिटेशन है और लोग यह भ्रम पाले हुए हैं
कि इस सीमितता के साथ वह उस असीमित शक्ति को समझ सकेंगे, जान
लेंगे और डिस्क्राईब भी कर पायेंगे।
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