वहाबियत और इस्लाम 2


वहाबियत और संघ की समानता

जाहिरी तौर पर संघ से वहाबियत की तुलना आपको विचलित कर सकती है क्योंकि यह एक छोटे माॅडल की तुलना बड़े माॅडल से है लेकिन यह तुलना परफार्मेंस के लेवल पर नहीं, विचारधारा के लेवल पर है। अगर आप सूक्ष्मता से इसका आकलन करेंगे तो समझ में आ जायेगी, लेकिन उसके लिये आपको अपने पूर्वाग्रहों से बाहर आना पड़ेगा।

आप सीधे 'वहाबिज्म इज इक्वल टू टेररिज्म' के लेवल पर चले जाते हैं लेकिन वहाबिज्म एक विचारधारा है, और आतंकी इस विचारधारा के हो सकते हैं लेकिन वे खुद पूरी विचारधारा नहीं हैं। इसे सरल अंदाज में आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं।

पूरी दुनिया में वहाबियत को सऊदी अरब प्रमोट करता है, उस अरब का क्राऊन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान है और जब वह भारत आता है तो आपके फायर ब्रांड हिंदुत्व का हीरो लपक के गलबहियां करता है, ठठ्ठे लगा कर हंसता है.. कहीं एक पल के लिये भी यह ख्याल आया मन में कि हमारा हिंदू शेर भला कैसे आतंकवाद से गलबहियां कर रहा है?


जाहिर है इसे आपने इसके आउटर फेस के रूप में देखा होगा कि यह दो राष्ट्रों के मुखिया गलबहियां कर रहे हैं, साथ कहकहे लगा रहे हैं.. जबकि इसका इनर फेस यह था कि एकरूपता की पैरोकार दो कट्टर विचारधारायें एक दूसरे से गलबहियां कर रही थीं, साथ कहकहे लगा रही थीं। यही समानता है।
विचारधारा के फैलाव के लिये यह आउटर इनर फेस वाली थ्योरी जरूरी है। जब इस्लाम फैलाया गया तब उस आउटर फेस को सामने रखा गया जो हर समाहित होने वाली संस्कृति को फराखदिली से कबूल कर रहा था, यह अपग्रेडेशन की अवस्था थी और जब यह अपग्रेडेशन पूरा हो गया तो फिर सिस्टम को रीसेट कर के उसी चौदह सौ साल पुराने दौर में वापस ले जाने की मुहिम शुरू हो गयी।
संघ अभी इसी अपग्रेशन के शुरुआती दौर से गुजर रहा है, वह सन चौरासी में सिखों पे भी हाथ साफ कर लेता है और सन दो हजार दो में मुसलमानों पर भी, लेकिन उसने 'राष्ट्रीय मुस्लिम मंच' और 'राष्ट्रीय सिख संगत' जैसे विंग भी बना रखे हैं। वह मुस्लिम द्वेष की बिना पर दक्षिणपंथी विचारधारकों के हीरो बने मोदी योगी को पीएम, सीएम भी बना देगा और आपको बहलायेगा भी कि मुस्लिम भी हमारे ही भाई हैं।

अभी आउटर फेस में वह फ्लेक्सिबल है लेकिन केन्द्र के साथ सभी राज्यों, सभी संवैधानिक, गैर संवैधानिक संस्थाओं में जब वह काबिज हो जायेगा तब शायद दक्षिण में न राम का अपमान करने की आजादी होगी, न उत्तर भारत के देवी देवताओं को नकारने की, न जनजातीय समूहों को अपने ईष्टों को प्राथमिकता देने की.. आदिवासी, जनजातियां, लिंगायत, पेरियारी, अंबेडकरवादी (विधर्मियों के लिये व्यवस्था कुछ और भी हो सकती है) इनके खास निशाने पर होंगे और तब यह भी दो ऑप्शन देंगे कि या तो हमारे जैसे हो जाओ, या 'गौरी लंकेश' हो जाओ। विधर्मियों को भी शायद दो ऑप्शन दें या सदियों पुराना बदला उतारने के नाम पर इकलौते ऑप्शन तक सीमित कर दें.. मौत।

अपग्रेडेशन और वापसी का सफर

दोनों विचारधाराओं में फर्क बस इतना है कि इस्लाम का अपग्रेडेशन पूरा हो चुका है और वह वहाबियत के रूप में रीसेट मोड में है जबकि संघ का अपग्रेडेशन अभी शुरू ही हुआ है।

आप वहाबियत से संघ की समानता की बात कीजिये, संघ के लिये साॅफ्ट कार्नर रखने वाला कोई भी हिंदू फौरन दस बीस उदाहरणों सहित इसके खिलाफ तर्क रखेगा कि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और वह सभी मत मान्यताओं को स्वीकारता है और आजादी देता है, किसी भी हिंसक कार्रवाई करने वाले व्यक्ति या गिरोह को वह फौरन संघ से खारिज कर देगा..

आप वहाबिज्म को आतंकवाद से जोड़िये, तत्काल वहाबिज्म के लिये साॅफ्ट कार्नर रखने वाला बंदा उन्हीं कुरानी आयतों और हदीसों की उदार और इंसानियत को सर्वोपरि रखने वाली व्याख्या कर के बता देगा, जिनके सहारे इन आतंकी संगठनों की बुनियाद खड़ी होती है.. और इन्हें वह भी फौरन इस्लाम से खारिज कर देगा।

यह दोनों एक ही धरातल पर जीने वाले जीव हैं जो इन विचारधाराओं के आउटर फेस के मोह में बंधे इसके इनर फेस से बस इसलिये इनकार करते हैं क्योंकि उसके लिये इनके मन में एक साॅफ्ट कार्नर मौजूद होता है। हालाँकि मुसलमानों से इतर इस दक्षिणपंथी विचारधारा में एक बड़ा वर्ग इस इनर फेस को खुल के स्वीकारने वाला भी है और इसे क्रिया की प्रतिक्रिया बता कर जस्टिफाई भी करता है।
लेकिन प्रतिक्रिया के शिकार असल में उस क्रिया के जिम्मेदार नहीं होते बल्कि वे कहीं न कहीं उस प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया के जनक होते हैं। हालाँकि यह क्रिया और प्रतिक्रिया का खेल समाज को उस गहरी खायी में धकेल देता है जहां किसी का जीवन सुरक्षित नहीं रह जाता। कई इस्लामिक देश इसकी जिंदा मिसाल हैं और हमने इस सिलसिले में व्यापक समझ न दिखाई तो इस सिलसिले की अगली कड़ी हम होंगे।

अब इसपे आइये कि कट्टरता को नये आयाम देनी वाली इस वैश्विक विचारधारा में मौजूदा दौर का आतंकवाद कैसे घुस गया। क्योंकि शुरुआती दौर के बाद एक बार फिर अब इसमें राजनीतिक हित और सत्ता का लोभ शामिल हो चुका है.. आप ईस्ट अफ्रीका के अल-शबाब , पश्चिमी अफ्रीका के बोकोहरम या बांग्लादेश के जमाते इस्लामी को इससे अलग कोई पहचान नहीं दे सकते।

इससे इतर तालिबान, अलकायदा, सिपाह-ए-सहाबा, जमातुद्दावा, अल खिदमत फाउंडेशन, जैश-ए-मुहम्मद, लश्करे तैयबा, आईएस जैसे संगठन भी इसी विचारधारा के वाहक हैं जो लगातार खूनी खेल खेल रहे हैं। इस चीज से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इसकी पृष्ठभूमि में आपको वे पूंजीवादी ताकतें भी मिलेंगी जो अपने राजनीतिक या आर्थिक हितों की पूर्ति के लिये न सिर्फ हर उस संभावित संघर्ष को उभारती हैं, जिसमें एक पक्ष मुसलमानों का हो.. दूसरे पैसा और हथियार भी मुहैया कराती हैं। अमेरिका और आले सऊद के गठजोड़ की जड़ यही चीज है कि यह रेडिकल इस्लामिक विचारधारा उनके बहुत से राजनीतिक आर्थिक हित साधती है।


एक आतंकी या जिहादी बनने वाला युवक दो वजहों से इनके फंदे में फंसता है.. या तो वह खुद वैसे जुल्म का शिकार हुआ हो जो अफगानिस्तान, फिलिस्तीन, ईराक, सीरिया या कश्मीर में बहुतायत देखने को मिल जायेंगे। एक भारतीय होने के नाते आपको शायद कश्मीर वाला हिस्सा पचाने में मुश्किल हो लेकिन सच यही है.. या फिर वह गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी से जूझता वो इंसान हो जिसे यूँ लड़ने की भी एक सैलरी मिलती है।
ऐसे दोनों लोग जब इनके संपर्क में आते हैं तो इन्हीं तरीकों से इनका ब्रेनवाश कर दिया जाता है कि उनकी लड़ाई 'जिहाद' है जिसमें मौत भी इस्लाम के नजरिये से शहादत है। मरने के बाद जन्नत तय है और काफिरों को कत्ल करना गुनाह नहीं है.. जिन आयतों के मतलब यहां के आलिम कुछ और बताते हैं, उन्हीं को वे अपने अंदाज में उन युवाओं पर अप्लाई करते हैं और शुद्ध इस्लामिक नजरिये से वे ही सही हैं। नतीजा मनमाफिक आता है कि बंदा सड़कों पर अंधाधुँध गोलियां चलाने के लिये तैयार हो जाता है, बम बांध कर फटने के लिये तैयार हो जाता है, भीड़ पर ट्रक चढ़ा देने के लिये तैयार हो जाता है।

यह ठीक है कि आतंकवाद की बहुतेरी वजहें हो सकती हैं लेकिन जहां अत्याचार या शोषण के खिलाफ दूसरे समुदायों की लड़ाई कभी भी अपनी धार्मिक पहचान को साथ नहीं जोड़ी जाती, वहीं मुसलमानों की लड़ाई चाहे जिस भी वजह से हो, वह फौरन धर्म से जुड़ जाती है क्योंकि इसमें ग्लोबल अपील है.. क्योंकि इसमें फौरन समान विचारधारा का समर्थन और सहयोग मिलने की गुंजाइश रहती है।

ऐसे या वैसे.. हालाँकि यह पूरी दुनिया को वहाबी विचारधारा में रंग देने की लड़ाई है। यह एकरूपता को मान्यता देती है और इससे बाहर जो भी है वह सब दोयम दर्जे का है। यह सोच उस विविधता भरी समावेशी संस्कृति पर सीधा प्रहार है जिसे हम देखने के आदी रहे हैं। किसी बाग की खूबसूरती तभी है जब उसमें हर वैरायटी के फूल हों.. एक जैसे फूलों का बाग नहीं होता, खेती होती है। वहाबिज्म इस्लाम के बाग को एक खेत में तब्दील कर देने वाली विचारधारा है।

कट्टरता से लड़ाई कैसे हो सकती है

अब सवाल यह है कि इससे लड़ा कैसे जाये.. सिर्फ भारत के संदर्भ में बात करें तो दक्षिणपंथी विचारधारा वाले जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया बता कर लड़ने की रणनीति बताते हैं वह तो और समस्यायें पैदा करने वाली है। गोधरा में कुछ सरफिरे मुसलमान कोच जलायेंगे तो प्रतिक्रिया में बाकी गुजरात के उग्र हिंदू दो हजार से ज्यादा उन मुसलमानों को कत्ल कर देंगे जो घटना के दोषी नहीं थे। फिर बिना वजह जो इस कत्लेआम के शिकार हुए लोगों का होता सोता बचेगा वह हथियार उठा कर 'इंडियन मुजाहिदीन' बना लेगा। देश के बाहर ऐसे आक्रोशित युवाओं को लपकने के लिये सौदागर पैसा और हथियार लिये तैयार बैठे हैं।

और फिर वे बम धमाके करेंगे.. आप फिर पलट के प्रतिक्रिया करोगे, फिर नये शिकार उस आक्रोश की खेती से पनपेंगे.. इस तरह तो अराजकता की स्थिति ही बनेगी। ऐसे हालत में वे रोहिंग्या से तुलना करने बैठ जाते हैं। रोहिंग्या उस म्यामार से ताल्लुक रखते हैं जहां किसी की दिलचस्पी नहीं लेकिन भारत एक महाशक्ति है और इसमें बहुतेरे देशों की दिलचस्पी है.. इसे अस्थिर करने के मौके बनेंगे तो बड़े बड़े देशों की दिलचस्पी इसमें पैदा हो जायेगी। यहां हालात बिगड़े तो संभालने भी मुश्किल हो जायेंगे।
प्रतिक्रिया के नाम पर हिंसा, इस विचारधारा से लड़ने का समाधान नहीं हो सकती। इसके लिये न सिर्फ सरकारी बल्कि सामाजिक प्रयास भी करने पड़ेंगे। कुछ सरकार करे और कुछ वह लोग और संस्थायें करें जो इसकी समझ रखती हैं.. लक्ष्य सिर्फ उस कट्टरता से मुक्ति हो जो किन्हीं कमजोर पलों में इंसान को हथियार उठाने की तरफ धकेल देती है। भारतीय मुस्लिमों में एक बड़ा तबका कट्टर जरूर हुआ है लेकिन अभी भी इस तथाकथित 'जिहाद' की तरफ उसका रुझान कतई नहीं है.. और भविष्य में हो भी न, इसके लिये कोशिश होनी चाहिये।

'जिहाद' के तो जिक्र पर भी पाबंदी होनी चाहिये, चाहे इसकी व्याख्या 'जिहाद अल नफस' के रूप में कितनी ही उदार क्यों न हो। धर्म के नाम पर चलते इदारों को सरकारी नजरबंदी में लिया जाये। मदरसों को दुनियाबी शिक्षा का केंद्र बनाया जाये और धार्मिक शिक्षा भी एक सीमित लेवल पर तब अलाऊ हो जब बच्चा थोड़ा मैच्योर हो जाये। बचपन से धार्मिक शिक्षाओं का प्रभाव बच्चे को भारत के बजाय सऊदी अरब के करीब धकेल देता है।

सामाजिक स्तर पर इस टाईप की मजलिसों, बैठकों, इज्तमाओं में, बजाय एकरूपता के विविधता की खूबसूरती समझाई जाये। समावेशी संस्कृति की अहमियत और स्वीकार्यता पर बल दिया जाये.. और यह कोई मुश्किल काम नहीं। मुस्लिम युवाओं के लिये सिर्फ शिक्षा ही काफी नहीं बल्कि उनमें यह समझ भी विकसित करने की कोशिश करनी चाहिये कि साझी संस्कृतियों के साथ समन्वय किस तरीके से हो और उन्हें इस हद तक सहनशील होने की भी जरूरत है कि कोई भी चीज आलोचना से परे नहीं हो सकती.. न खुदा, न उसके नबी पैगम्बर और न धार्मिक किताबें।


आप इब्ने तैमिया, अब्दुल वहाब, मौलाना मौदूदी के माॅडल से हट कर इस्लाम के नाम पर भारत में पाये जाने वाले सभी फिरकों को उनकी संस्कृति, रिवाजों, परंपराओं के के साथ इस्लाम का हिस्सा स्वीकार करने और कराने पर जोर दीजिये.. बजाय उन्हें काफिर, मुशरिक, मुनाफिक, खारिजी, राफजी वगैरह करार देने के, तो खुद बखुद यह कट्टरता कम हो जायेगी। लोगों को यह समझ होनी जरूरी है कि वे भारतीय हैं सऊदी नहीं और उन्हें भारतीय जैसा दिखने की जरूरत है न कि अरबी जैसे दिखने की।

और यह उपाय भी भारत में ही कारगर हैं क्योंकि यहां के मुसलमान कई पैमानों पर दुनिया के दूसरे मुसलमानों से अलग हैं.. बाकी दुनिया के लिये कोई रास्ता सुझाना मुश्किल है। या तो वे पाकिस्तान अफगानिस्तान की तरह आपस में लड़ेंगे मरेंगे, या सीरिया ईराक की तरह अमेरिका, रशिया, ब्रिटेन, इजरायल आदि की स्वार्थ पूर्ति का शिकार हो कर खुद को तबाह करेंगे क्योंकि.. असल इस्लाम वही है।

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