क्रमिक विकास का सरल परिचय
क्रमिक विकास क्या अर्थ है?
क्रमिक विकास का सिद्धांत(Theory of evolution) विज्ञान के इतिहास में अब तक प्रतिपादित कुछ सबसे प्रसिद्द, बेहतरीन और प्रमाणिक सिद्धांतों में से एक है जो विज्ञान की तमाम शाखाओं जैसे जीवाश्म विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, अनुवांशिकी इत्यादि द्वारा उपलब्ध कराये गए अनेकों अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध है। यह सिद्धांत बेहद रोमांचक है क्योंकि यह हमारी कुछ आदिम जिज्ञासाओं का जवाब देता है....हम कहाँ से आये? जीवन कहाँ से आया? ये जैव विविधता कैसे उत्पन्न हुयी?
सदियों से मनुष्य के पास इन सवालों का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था सिवाय कुछ धर्मजनित दार्शनिक सिद्धांतों के, जो कितने सत्य हैं कोई नहीं जानता था। इस सिद्धांत ने मानवता के इतिहास में पहली बार न केवल मानव को अपने अस्तित्व स्रोत तलाशने का मार्ग दिखाया बल्कि यह भी बताया कि पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता आपस में सम्बंधित है और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तिव में आई है। यह लेख आपको क्रमिक विकास के मूलभूत सिद्धांतों से आपका परिचय कराने के साथ-साथ वे कैसे कार्य करते हैं यह भी समझने में मदद करेगा।
सदियों से मनुष्य के पास इन सवालों का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था सिवाय कुछ धर्मजनित दार्शनिक सिद्धांतों के, जो कितने सत्य हैं कोई नहीं जानता था। इस सिद्धांत ने मानवता के इतिहास में पहली बार न केवल मानव को अपने अस्तित्व स्रोत तलाशने का मार्ग दिखाया बल्कि यह भी बताया कि पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता आपस में सम्बंधित है और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तिव में आई है। यह लेख आपको क्रमिक विकास के मूलभूत सिद्धांतों से आपका परिचय कराने के साथ-साथ वे कैसे कार्य करते हैं यह भी समझने में मदद करेगा।
डार्विन ने सन 1859 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पिशीज’ में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार प्राकृतिक वरण ही जीवों में बदलावों को गति देता है जिसके कारण लम्बे समय अन्तराल में नयी जैव प्रजातियों का विकास होता है। इस सिद्धांत के तीन प्रमुख बिंदु हैं।
1. किसी एक परिवेश में रहने वाले किसी जीव प्रजाति के सदस्य न केवल शारीरिक रूप से बल्कि गुण व्यवहार इत्यादि से परस्पर आंशिक रूप से भिन्न होते हैं।
3. जिन सदस्यों के गुण उन्हें उस परिवेश में अपनी ही प्रजाति के सदस्यों पर बढ़त प्रदान करते हैं उनके बचे रहने और संतानोत्पत्ति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसी को प्राकृतिक चुनाव अथवा वरण कहा जाता है।
5. इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्राकृतिक चुनाव के कारण उन गुणों का निरंतर विकास होता है और एक इसी के कारण एक लम्बे अंतराल में एक बिल्कुल नयी जैव प्रजाति अस्तित्व में आती है।
डार्विन ने जब इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया था तब तक अनुवांशिकी और डीएनए के बारे में कोई ख़ोज नहीं हुयी थी, अतः जीवों में विभिन्नताएं किस कारण से आती हैं इसको समझा नहीं जा सका था। परन्तु आज हम जानते हैं जीवों में भिन्नताएं डीएनए और उसमें कालांतर में होने वाले म्युटेशन के कारण आती हैं।
डीएनए अणुओं की एक चेन जैसी जटिल संरचना होती है जो जेनेटिक सूचनाओं का स्रोत होती है। डीएनए में मौजूद जेनेटिक सूचनाएं ही किसी जीव के शारीरिक विकास, अंगों की बनावट, उनकी कार्यप्रणाली, संतति और व्यवहार को निर्धारित करती है। जीव के शरीर की हर कोशिका में यह डीएनए मौजूद होता है। जब भी कोई कोशिका विभाजित होती है तो वह कोशिका इस डीएनए की कॉपी तैयार करती है।
कॉपी तैयार करने की यह प्रक्रिया बेहद कुशल होती है लेकिन फिर भी इसमें अशुद्धि आने की सम्भावना बनी रहती है। हालाँकि अधिकांश मामलों में डीएनए इन अशुद्धियों को स्वतः ठीक कर लेता है। लेकिन फिर भी कुछ मामलों में ये अशुद्धियाँ डीएनए का ही हिस्सा बन जाती हैं इन्हीं अशुद्धियों को म्युटेशन कहा जाता है।
इन म्युटेशन के कारण जीव के शारीरिक अंगों और व्यवहार में कुछ बदलाव आते हैं। ये बदलाव दो प्रकार के हो सकते हैं हानिकारक और लाभदायक। अधिकांश बदलाव हानिकारक ही होते हैं लेकिन कुछ बदलाव लाभदायक भी होते हैं जो उस जीव को अपने परिवेश में अन्य जीवों पर प्रतिस्पर्धा में बढ़त प्रदान करते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति उत्पन्न की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और इस तरह वह म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में प्रसारित होता जाता है। ज
बकि हानिकारक म्युटेशन जीव को प्रतिस्पर्धा में पछाड़ देते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति पैदा करने की संभावनाएं कम हो जाती हैं, फलस्वरूप वे म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में नहीं जा पाते और इस तरह प्राकृतिक चुनाव उन्हें चलन से बाहर कर देता है।
जिन जीवों में लैंगिक प्रजनन होता है वहां यह प्रक्रिया और दिलचस्प हो जाती है।
किसी जीव प्रजाति में बदलावों का यह सिलसिला एक लम्बे कालांतर में एक बिल्कुल ही नयी जीव प्रजाति को विकसित कर देता है जो दिखने, आकार, प्रकार, व्यवहार में पूर्व प्रजाति से काफी भिन्न होती है। यही क्रमिक विकास है जिसे हम प्रकृति के अद्रश्य हाथों की संज्ञा दे सकते हैं जिसने धरती पर अनगिनत जैव विविधताओं को आकार दिया है।
प्राकृतिक चुनाव किस तरह जैव विविधताओं को आकार देता है इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण हमारे एकदम पास में मौजूद है। मनुष्य का सबसे भरोसेमंद दोस्त जिसकी वफ़ादारी की मिसालें दी जाती हैं, जी हाँ कुत्ते। दुनिया भर में मौजूद कुत्तों की तमाम प्रजातियां ‘जो दिखने में आकार, प्रकार, व्यवहार में एकदूसरे से बहुत भिन्न प्रतीत होती हैं’ वास्तव में एक ही प्राचीन पूर्वज की संतानें हैं।
कुत्तों का विकास लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व भेडियों की एक प्रजाति से हुआ था जो कि अब लुप्त हो चुकी है। शिकार में उपयोगी होने के कारण कुत्ते धीरे-धीरे प्राचीन काल में मौजूद दुनिया के सभी मानव समूहों में पहुँच गए और भिन्न भिन्न स्थानों के पर्यावरण और मानवीय हस्तक्षेप(सेलेक्टिव ब्रीडिंग) ने उन्हें समय के साथ इतने भिन्न-भिन्न रंग रूप और आकारों में ढाल दिया।
मानव द्वारा अंजाम दी गयी सेलेक्टिव ब्रीडिंग के कारण कुत्तों की बहुत सी प्रजातियाँ तो मात्र पिछले कुछ 200 वर्ष के दौरान ही विकसित हुयी हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जिस तरह कृत्रिम चयन के कारण जीवों में बेहद कम समय में नाटकीय बदलाव आ सकते हैं ठीक उसी तरह प्राकृतिक चयन भी जीवों को आकार दे सकता है।
दुनिया का कोई भी स्तनपायी जीव अपने शिशु के लिए उसकी आवश्यकता से इतने अधिक दूध का उत्पादन नहीं करता। सेलेक्टिव ब्रीडिंग ने केलों से बीजों को गायब कर दिया है जबकि केले की जंगली प्रजाति में आज भी बीज पाए जाते हैं। बंदगोबी कभी एक लम्बा पत्तेदार पौधा था जो अब एक ग्लोब जैसा बन चुका है। जंगली स्ट्रॉबेरी की तुलना में हमारे द्वारा उगाई जाने वाली संकर स्ट्रॉबेरी लगभग 10 गुना बड़ी है और अधिक मीठी भी।
इसी तरह हमारे दैनिक उपभोग की लगभग सभी जैविक वस्तुएं आज जिस रूप में हैं जब हमने उनका उपभोग करना प्रारंभ किया था तब वे वैसी नहीं थीं। यही नहीं हमने सेलेक्टिव ब्रीडिंग द्वारा उनकी तमाम किस्में भी विकसित कर ली हैं जो गुण-धर्म में एक दुसरे से एकदम भिन्न हैं। तो जब इतने कम समय में मानवीय हस्तक्षेप सैकड़ों जैव प्रजातियों को आकार दे सकता है तो जरा सोचिये अरबों वर्ष के अंतराल में प्रकृति कितनी जैव विविधताओं को जन्म दे सकती है?
आज दुनिया में मौजूद कुत्तों की प्रजातियाँ एक दुसरे से इतनी भिन्न हैं कि वे देखने में बिल्कुल ही भिन्न जीव लगते हैं। दुनिया का सबसे छोटा कुत्ता टी कप पडल मात्र आधा किलो का है तो तिब्बतियन मेस्टिफ 90 किलो का है। लेकिन बावजूद इसके वे एक ही जीव प्रजाति के अंतर्गत आते हैं। क्योंकि इतना भिन्न दिखने के बावजूद उनका डीएनए बहुत भिन्न नहीं है।
कुत्तों की दो प्रजातियों में आकार व्यवहार के फर्क के कारण भले ही प्राकृतिक रूप से उनका सहवास करना संभव न हो लेकिन यदि कृत्रिम गर्भधान कराया जाए तो मादा एकदम स्वस्थ पिल्लों को जन्म दे सकती है। इससे पता चलता है कि कुत्तों में दो भिन्न प्रजातियों के डीएनए आज भी इतने भिन्न नहीं हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण न कर सकें।
लेकिन जब एक ही जीव की दो भिन्न प्रजातियाँ विकासक्रम के एक लम्बे सफ़र पर अलग-अलग विकसित होती हैं तो एक लम्बे कालांतर में एक समय ऐसा आता है जब कि उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण नहीं कर सकते। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है खच्चर।
खच्चर असल में कोई जीव प्रजाति नहीं है बल्कि यह दो भिन्न जीवों के संयोग से निर्मित है। घोड़े और गधे के कृत्रिम गर्भधान से खच्चर का जन्म होता है। लेकिन खच्चर स्वयं अपनी संतति नहीं पैदा कर सकता, क्योंकि यह नपुंसक होता है। घोडा और गधा एक ही प्राचीन पूर्वज की दो भिन्न वंशबेलें हैं जो कि विकासक्रम में इस अवस्था पर पहुँच चुके हैं जबकि उनका डीएनए आपस में संयुक्त होकर एक स्वस्थ भ्रूण को जन्म नहीं दे सकता।
इसी तरह एक लम्बे कालांतर के बाद ये भिन्नताएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि तब शुक्राणु भी अंडे को निषेचित नहीं कर पाता। शेर और बिल्ली ये दोनों एक ही संयुक्त पूर्वज की भिन्न-भिन्न वंशबेलें हैं। लेकिन ये दोनों अपने विकास के पथ पर इतना आगे निकल चुके हैं कि कृत्रिम गर्भधान द्वारा भी गर्भधारण नहीं हो सकता।
लेकिन यहाँ एक सवाल पैदा होता है, कि आखिर वह क्या कारण है जिसकी वजह से एक ही प्राचीन पूर्वज से उत्पन्न संतानें विकासक्रम में भिन्न-भिन्न मार्गों पर विकसित होती हुयी दो भिन्न प्रजातियाँ बन जाती हैं?
इसका प्रमुख कारण है पृथक्कीकरण। यानी एक ही प्रजाति के दो समूहों के मध्य आया कोई ऐसा अवरोध जो उन्हें आपसी संपर्क से वंचित कर दे। ऐसा दो प्रमुख कारणों से हो सकता है। भौगौलिक कारणों से और ऐच्छिक अथवा व्यहवारगत कारणों से।
भौगौलिक पृथककीकरण में एक ही प्रजाति के दो समूहों के बीच कोई भौगौलिक अवरोध आ जाता है, जिसके कारण वे आपसी संपर्क से वंचित हो जाती हैं और अलग-अलग विकसित होती हैं। एक लम्बे समय अंतराल के बाद उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि भौगौलिक अवरोध न रहने के बावजूद भी वे आपसी संपर्क के इच्छुक नहीं रहते, और यदि संपर्क हो भी जाए तो भी एक स्वस्थ संतति को जन्म देने में असमर्थ होते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि टेक्टोनिक प्लेटों के सरकने के कारण पृथ्वी पर लम्बे कालखंड में मुख्यभूमि से अलग होकर नए महाद्वीपों के बनने और समुद्र में ज्वालामुखीय गतिविधियों के कारण नए द्वीपों के बनने की घटनाएं होती रही हैं जिसकी वजह से कई बार जीव प्रजातियों को भौगौलिक पृथक्कीकरण का सामना करना पड़ा है।
इसके साथ ही पर्वतों और घाटियों के बनने और नवीन जलधाराओं द्वारा जमीन के दो हिस्सों को अलग कर देने की घटनाएं भी घटती रही हैं। कई बार भौगौलिक दूरियां भी पृथक्कीकरण का काम करती हैं। डार्विन के मन में क्रमिक विकास के सिद्धांत का विचार जिन जीवों के अध्ययन की वजह से आया उनके भीतर आयी विभिन्नताओं का कारण भौगौलिक पृथक्कीकरण ही था।
गैलापोगस द्वीप समूह ‘जो कि दक्षिणी अमेरिका के निकट प्रशांत महासागर में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है’ की यात्रा के दौरान डार्विन ने पाया कि हर द्वीप पर मौजूद कछुओं और चिड़ियों की प्रजाति एक दुसरे से भिन्न है। उन्होंने यह भी पाया कि वहां के स्थानीय लोग किसी कछुए अथवा चिड़िया को देखकर यह बता देते थे कि यह किस द्वीप की निवासी है। बाद में अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि द्वीपों पर मौजूद भोजन के प्रकार और उस पर पाए जाने वाले जीवों में सीधा सम्बन्ध है।
आज हम जानते हैं कि डार्विन का सोचना एकदम दुरुस्त था क्योंकि जेनेटिक मैपिंग ने यह सिद्ध कर दिया है कि गैलापोगस द्वीप पर पायी जाने वाली कछुओं की विभिन्न प्रजातियाँ वास्तव में एक ही प्राचीन प्रजाति से विकसित हुयी हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि जीवनयापन के लिए नए अवसरों की तलाश में कोई जीव समूह किसी नए परिवेश अथवा व्यहवार को अपना लेता है, उसकी भावी संततियां भी उसी परिवेश के अनुकूल खुद को ढाल लेती हैं और कोई भौगौलिक बाधा न होते हुए भी अपनी प्रजाति के अन्य समूहों से उनका संपर्क ख़त्म हो जाता है। हालाँकि इस पर वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं।
जैसे अभी हाल ही में उत्तरी अमेरिका में सेबों में अंडे देने वाले वाली एक फल मक्खी में इस व्यवहार को खोजा गया है। सेब के वृक्ष उत्तरी अमेरिका में प्रवासी वृक्ष हैं जिनको 19वीं सदी में बाहर से लाकर रोपित किया गया था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन वृक्षों के फलों में अंडे देने वाली एक फल मक्खी वास्तव में वहां पाए जाने वाले एक फल हाथोर्न में अंडे देने वाली एक फल मक्खी की वंशज है।
अभी तक कीटों पर हुए शोध यह बताते हैं कि हर कीट का एक विशेष वृक्ष से सम्बन्ध रहता है। इनका जीवनचक्र उसी वृक्ष विशेष पर निर्भर करता है। यानी हर फल मक्खी किसी विशेष फल पर ही अंडे देती है। लेकिन हाथोर्न फल में अंडे देने वाली एक मक्खी ने नए अवसरों की तलाश में सेब के फल को चुना और उसकी संततियां भी उसी सेब के वृक्ष पर आश्रित हो गयीं और कालांतर में एक नयी प्रजाति के रूप में विकसित हो गयीं।
अब जब चूँकि हम ये जान गए हैं कि किस तरह प्राकृतिक चुनाव नयी जैव प्रजातियों को विकसित करता है तो मन में ये विचार सहज ही आता है कि क्या पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जीवन आपस में सम्बंधित हो सकता है? डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत का दूसरा चरण यही कहता है जिसकी पुष्टि पिछले 150 वर्षों में तमाम वैज्ञानिक शोधों में समय-समय पर होती रही है। यानी धरती पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता एक ही आदि जीव के क्रमिक विकास के फ़लस्वरूप अस्तित्व में आयी है।
इसी तरह एक लम्बे कालांतर के बाद ये भिन्नताएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि तब शुक्राणु भी अंडे को निषेचित नहीं कर पाता। शेर और बिल्ली ये दोनों एक ही संयुक्त पूर्वज की भिन्न-भिन्न वंशबेलें हैं। लेकिन ये दोनों अपने विकास के पथ पर इतना आगे निकल चुके हैं कि कृत्रिम गर्भधान द्वारा भी गर्भधारण नहीं हो सकता।
लेकिन यहाँ एक सवाल पैदा होता है, कि आखिर वह क्या कारण है जिसकी वजह से एक ही प्राचीन पूर्वज से उत्पन्न संतानें विकासक्रम में भिन्न-भिन्न मार्गों पर विकसित होती हुयी दो भिन्न प्रजातियाँ बन जाती हैं?
इसका प्रमुख कारण है पृथक्कीकरण। यानी एक ही प्रजाति के दो समूहों के मध्य आया कोई ऐसा अवरोध जो उन्हें आपसी संपर्क से वंचित कर दे। ऐसा दो प्रमुख कारणों से हो सकता है। भौगौलिक कारणों से और ऐच्छिक अथवा व्यहवारगत कारणों से।
भौगौलिक पृथककीकरण में एक ही प्रजाति के दो समूहों के बीच कोई भौगौलिक अवरोध आ जाता है, जिसके कारण वे आपसी संपर्क से वंचित हो जाती हैं और अलग-अलग विकसित होती हैं। एक लम्बे समय अंतराल के बाद उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि भौगौलिक अवरोध न रहने के बावजूद भी वे आपसी संपर्क के इच्छुक नहीं रहते, और यदि संपर्क हो भी जाए तो भी एक स्वस्थ संतति को जन्म देने में असमर्थ होते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि टेक्टोनिक प्लेटों के सरकने के कारण पृथ्वी पर लम्बे कालखंड में मुख्यभूमि से अलग होकर नए महाद्वीपों के बनने और समुद्र में ज्वालामुखीय गतिविधियों के कारण नए द्वीपों के बनने की घटनाएं होती रही हैं जिसकी वजह से कई बार जीव प्रजातियों को भौगौलिक पृथक्कीकरण का सामना करना पड़ा है।
इसके साथ ही पर्वतों और घाटियों के बनने और नवीन जलधाराओं द्वारा जमीन के दो हिस्सों को अलग कर देने की घटनाएं भी घटती रही हैं। कई बार भौगौलिक दूरियां भी पृथक्कीकरण का काम करती हैं। डार्विन के मन में क्रमिक विकास के सिद्धांत का विचार जिन जीवों के अध्ययन की वजह से आया उनके भीतर आयी विभिन्नताओं का कारण भौगौलिक पृथक्कीकरण ही था।
गैलापोगस द्वीप समूह ‘जो कि दक्षिणी अमेरिका के निकट प्रशांत महासागर में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है’ की यात्रा के दौरान डार्विन ने पाया कि हर द्वीप पर मौजूद कछुओं और चिड़ियों की प्रजाति एक दुसरे से भिन्न है। उन्होंने यह भी पाया कि वहां के स्थानीय लोग किसी कछुए अथवा चिड़िया को देखकर यह बता देते थे कि यह किस द्वीप की निवासी है। बाद में अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि द्वीपों पर मौजूद भोजन के प्रकार और उस पर पाए जाने वाले जीवों में सीधा सम्बन्ध है।
जैसे निर्जन और पथरीले द्वीपों पर पायी जाने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच काठी के आकार का था वहीं उर्वर द्वीपों पर रहने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच गुम्बदाकार था। निर्जन द्वीपों पर चूँकि भोजन के नाम पर केवल कैक्टस के फल ही मौजूद थे अतः उन तक पहुँचने के लिए कछुओं को अपनी गर्दन को ऊँचा उठाना पड़ता था, गुम्बदाकार कवच जिसमें बाधा था अतः प्राकृतिक चयन ने उन कछुओं को प्राथमिकता दी जो अपनी गर्दन को ऊँचा उठा सकते थे, जिसने कालांतर में काठी के आकार वाले कवच के कछुओं को विकसित किया।
आज हम जानते हैं कि डार्विन का सोचना एकदम दुरुस्त था क्योंकि जेनेटिक मैपिंग ने यह सिद्ध कर दिया है कि गैलापोगस द्वीप पर पायी जाने वाली कछुओं की विभिन्न प्रजातियाँ वास्तव में एक ही प्राचीन प्रजाति से विकसित हुयी हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि जीवनयापन के लिए नए अवसरों की तलाश में कोई जीव समूह किसी नए परिवेश अथवा व्यहवार को अपना लेता है, उसकी भावी संततियां भी उसी परिवेश के अनुकूल खुद को ढाल लेती हैं और कोई भौगौलिक बाधा न होते हुए भी अपनी प्रजाति के अन्य समूहों से उनका संपर्क ख़त्म हो जाता है। हालाँकि इस पर वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं।
जैसे अभी हाल ही में उत्तरी अमेरिका में सेबों में अंडे देने वाले वाली एक फल मक्खी में इस व्यवहार को खोजा गया है। सेब के वृक्ष उत्तरी अमेरिका में प्रवासी वृक्ष हैं जिनको 19वीं सदी में बाहर से लाकर रोपित किया गया था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन वृक्षों के फलों में अंडे देने वाली एक फल मक्खी वास्तव में वहां पाए जाने वाले एक फल हाथोर्न में अंडे देने वाली एक फल मक्खी की वंशज है।
अभी तक कीटों पर हुए शोध यह बताते हैं कि हर कीट का एक विशेष वृक्ष से सम्बन्ध रहता है। इनका जीवनचक्र उसी वृक्ष विशेष पर निर्भर करता है। यानी हर फल मक्खी किसी विशेष फल पर ही अंडे देती है। लेकिन हाथोर्न फल में अंडे देने वाली एक मक्खी ने नए अवसरों की तलाश में सेब के फल को चुना और उसकी संततियां भी उसी सेब के वृक्ष पर आश्रित हो गयीं और कालांतर में एक नयी प्रजाति के रूप में विकसित हो गयीं।
अब जब चूँकि हम ये जान गए हैं कि किस तरह प्राकृतिक चुनाव नयी जैव प्रजातियों को विकसित करता है तो मन में ये विचार सहज ही आता है कि क्या पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जीवन आपस में सम्बंधित हो सकता है? डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत का दूसरा चरण यही कहता है जिसकी पुष्टि पिछले 150 वर्षों में तमाम वैज्ञानिक शोधों में समय-समय पर होती रही है। यानी धरती पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता एक ही आदि जीव के क्रमिक विकास के फ़लस्वरूप अस्तित्व में आयी है।
पृथ्वी पर मौजूद जीवन के दो प्रारूप परस्पर कितने ही भिन्न हों लेकिन वे दूर के सम्बन्धी हैं। हम अपनी बात करें तो जीवन के वृक्ष पर चिम्पांजी हमारा निकटतम सम्बन्धी है, उसके बाद गोरिल्ला, ओरेंगोटेन। निकटतम सम्बन्धी होने का अर्थ है कि धरती पर वर्तमान में मौजूद जीव प्रजातियों में चिम्पाजी वह जीव है जिसके साथ मानव सर्वाधिक निकट संयुक्त पूर्वज साझा करता है। लेकिन जीवन के वृक्ष पर जब हम निकटतम संयुक्त पूर्वज की बात करते हैं तो निकटतम का अर्थ भी हजारों से लाखों वर्ष पूर्व हो सकता है।
मानव की वंश शाखा वानर प्रजाति से लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व अलग हुयी और विकास क्रम में विभिन्न मानव प्रजातियों से होती हुयी वर्तमान मानव के रूप में विकसित हुयी। एक समय था जब धरती के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न मानव प्रजातियाँ मौजूद थीं। लेकिन वे सभी विभिन्न कारणों से समय के साथ लुप्त हो गयीं और वर्तमान प्रजाति यानी होमोसेपियंस यानी हम बचे रहने में कामयाब रहे।
Written by Arpit Dwivedi
Post a Comment