'अगर अभी चुनाव हों तो …'
'अगर अभी चुनाव हों तो …'
मैं अक्सर टीवी पर इस तरह के ओपीनियन पोल देखता हूँ कि 'अगर अभी चुनाव हों तो …' और फिर ब्ला-ब्ला-ब्ला... भाजपा की आंधी चल रही है, पूरा देश मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहता है, मोदी कि लहर है और अभी चुनाव हों तो भाजपा 200 सीट जीत लेगी, कांग्रेस 100 में सिमट जायेगी।
तब
मेरे मन में
सवाल उठता है
कि अगर अभी
चुनाव क्यों होंगे
? क्या सिर्फ इसलिए कि
C-voter,IBN7,Neelsan-ABP वालों
ने सर्वे कर
लिया है तो
चुनाव होना तय
माना जाए। अरे
चुनाव जब होने
हैं तब ही
होंगे, कुछ बिकाऊ
चैनल वालों के
कहने से तो
अभी हो नहीं
जायेंगे।
लेकिन
यह एक कडुवी
सच्चाई है कि
इस देश में
अब हर चीज़
की मार्केटिंग होती
है , लोगों को
मैनिपुलेट करने की
भी मार्केटिंग होती
है , बस शर्त
यह है कि
आपको मीडिया को
मैनेज करना आना
चाहिए, जैसे भाजपा
वालों को आता
है। जब से
देश में ये
नए किस्म की
संचार क्रांति आयी
है और हर
चीज़ को उत्पाद
बना कर उसकी
मार्केटिंग का सिलसिला
शुरू हुआ है
तब से अब
तक चाहे 98-99 का
आम चुनाव हो
या इंडिया शाइनिंग
से चमचमाता 2004
का,
कांग्रेस की एंटी-इंकम्बेंसी वाला 2009
का चुनाव हो
या मोदी रथ
पर सवार 2014 का
आम चुनाव। हर
बार मीडिया का
झुकाव साफ़ साफ़
बीजेपी की तरफ
होता है और
उन्हें बीजेपी चौतरफा बढ़त
लेती दिखायी देती
है और असली
तय शुदा वक़्त
पर होने वाले
आम चुनाव से
पहले इस तथा-कथित निष्पक्ष
पत्रकारिता का दम्भ
भरने वाले स्तम्भ
द्वारा दसियों 'अगर अभी
चुनाव हों तो...'
जैसे सर्वेक्षणों के
माध्यम से आम
जनमानस में ये
प्रचारित प्रसारित करने का
खेल शुरू हो
जाता है कि
बीजेपी चारों तरफ लीड
ले रही है
-- हर तरफ मोदी
की लहर है
और NDA को 200
से ज्यादा सीटें
मिल रही हैं
-- वगैरा वगैरा।
कांग्रेसियों
का दुर्भाग्य यह
है कि उन्हें
मीडिया को मैनेज
करना नहीं आता
वर्ना 90 के दशक से
जब उदारीकरण और
बाद में बाज़ारीकरण
का खेल शुरू
हुआ तब से
कभी किसी आम
चुनाव में कांग्रेस
को अहमियत नहीं
दी गयी और
किसी सर्वे ने
नहीं बताया कि
वह सरकार बनाने
की हालत में
पहुंचेगी, बावजूद इसके कि
उसने लगातार दो
बार सरकार बनायी।
तय
वक़्त पर होने
वाले चुनाव से
पहले ही दस-बीस सर्वे
करा कर टीवी
चैनल जिस तरह
लोगों को मैनिपुलेट
करते हैं वह
इन सर्वेक्षणों की
नीयत पर गम्भीर
सवाल खड़े करता
है। इन ओपिनियन
पोल में दस
हज़ार से लेकर
पचास हज़ार लोग
भी हो सकते
हैं लेकिन क्या
यह गिनती के
लोग देश के
करोड़ों मतदाताओं की मनः-स्तिथि का सही
प्रतिनिधित्व करते हैं
? जितने लोग इन
सर्वे में शामिल
किये जाते हैं,
नगर निगम के
एक वार्ड के
वोटर भी उससे
ज्यादा हो सकते
हैं -- कैसे इनकी
राय को पूरे
देश की राय
मान लिया जाता
है ? पचास मुसलमानों
से पूछ कर
देश के करोड़ों
मुसलमानों की पसंद-नापसंद के फैसले
इतनी दीदा-दिलेरी
से टीवी पर
कैसे सुना दिए
जाते हैं ?
इन
सर्वेक्षणों के नकारात्मक
प्रभाव क्या होते
हैं यह कोई
मायावती और मुलायम
से पूछे। इन
सर्वेक्षणों ने ही
लोगों को पहले
एक निरंकुश, दबंगई
और अराजकता पूर्ण
राजनीतिक छवि वाली
सपा के खिलाफ
एक जुट किया
और बाद में
इसी कवायद ने
मायावती को सत्ता
से बेदखल कर
दिया।
देखा
जाए तो अखिलेश,
मुलायम, राम गोपाल,
शिव पाल, आज़म
खान जैसे सत्ता
के कई केन्द्रों
वाली सपा के
मुक़ाबले सत्ता के एक
केंद्र वाली मायावती
का शासन कहीं
ज्यादा बेहतर था। इस
बात को अख़बारों
में खबरे पढ़ने
वाले, टीवी पे
न्यूज़ देखने वाले
लोग खुद महसूस
कर सकते हैं
लेकिन उनकी व्यक्तिवादी
राजनीति , मूर्तियों, स्मारकों, पार्कों,
पर बेतहाशा पानी
बहाने वाली सरकारी
फ़िज़ूलखर्ची और कुछ
मंत्रियों के निरंकुश
और भ्रष्ट आचरण
-- चुनाव से पहले
आमजन में सपा
को सहानुभूति दिलाने
वाले फैक्ट तो
ज़रूर थे लेकिन
महीने भर में
सात चरणों में
होने वाले चुनाव
और हर चरण
के बाद मीडिया
का सर्वे ड्रामा
और डिबेट नौटंकी
में यह प्रचार
प्रसार कि लोगों
का झुकाव सपा
की तरफ है
... सपा को बढ़त
मिल रही है
… सपा फायदे में
है और सरकार
बना लेगी लेकिन
शायद कांग्रेस से
समर्थन लेना पड़े
-- आगे के चरणों
में मत देने
वाले मतदाताओं को
यह क्लियर मैसेज
देता गया कि
वह कहाँ वोट
देकर खंडित जनादेश
वाली सरकार या
त्रिशंकु विधानसभा से बच
सकते हैं और यही कारण रहा कि पूरे प्रदेश में सपा की साइकिल दौड़ी और इसी
सर्वे ड्रामा और सूचना के बाज़ारीकरण का ही खेल है कि सात आठ साल पहले तक जहाँ इतनी
बड़ी विधान सभा में बीसियों साल से खंडित जनादेश की सरकारें बनती चली आ रही थीं -- वहीँ
अब बहुमत से सरकारें बन्ने लगीं।
बहुत
से लोग यह
कहेंगे कि यह
तो अच्छा है
कि इस तरह
लंगड़ी लूली सरकार
के बजाय बहुमत
की सरकार बन
जाती है लेकिन
इसके साइड इफेक्ट
U.P. की
जनता से पूछिए।
अगर नीयत साफ़
हो तो बहुमत
विकास का आधार
बन सकता है
वर्ना मनमाने, निरंकुश,
अराजक शासन का
लाइसेंस भर। कोई
आपकी जेब से
भरे सरकारी ख़ज़ाने
को मूर्तियों, स्मारकों,
पार्कों पर उड़ा
सकता है तो
कोई लैपटॉप, भत्ता-वितरण, महोत्सव और
विदेश यात्राओं पर।
बहरहाल,
मेरा विषय 'अगर
अभी चुनाव हों
तो...' वाले सर्वेक्षण
हैं और मेरा
इन तथाकथित बुद्धिजीवियों
से एक सवाल
है कि अगर
अभी चुनाव क्यों
होने लगे ? अगर
आज भाजपा की
बढ़त या देश
में मोदी का
बढ़ता प्रभाव दिखायी
देता है तो
यू. पी. ए.
2 के
ऊपर लगे घोटालों
के दाग, अपनी
सफाई में उसकी
लचर दलीलें, और महंगाई
पर उसके नेतृत्व
कि अकर्मण्यता ही
ज़िम्मेदार नहीं बल्कि
ये तथाकथित निष्पक्षता
का दम्भ भरने
वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
भी है जो
पिछले छः महीने
से 'अगर अभी
चुनाव हों तो....'
वाले दसियों सर्वेक्षणों
और उन पर
चौपाली चर्चा के भागीरथी
प्रयासों द्वारा आम जनमानस
के दिलो-दिमाग
में ठूंस ठूंस
कर ये भरने
में लगा हुआ
है के भाजपा
बढ़त ले रही
है या देश
भर में मोदी
की लहर चल
रही है और
लोग उन्हें प्रधानमंत्री
के रूप में
देखना चाहते हैं।
मार्केटिंग के इस
दौर में इस
तरह लोगों को
मैनिपुलेट करना क्या
कांग्रेस समेत दूसरे
सभी दलों के
लिए उनके अवसरों
को सीमित कर
देने जैसा खतरनाक
नहीं है ?
मेरा
इस तथाकथित निष्पक्ष
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बड़ा
मौलिक सवाल है
कि जब से
Aaj-tak, A.B.P. news., Zee news, IBN7, जैसे
चैनलों का जन्म
हुआ है तब
से आज तक
देश में कई
आम चुनाव हों
चुके हैं लेकिन
क्या कारण है कि
उन्हें कभी भी
कांग्रेस जीतती हुई नहीं
दिखायी देती जबकि
आज़ाद भारत के
इतिहास में सबसे
ज्यादा शासन इसी
पार्टी का रहा
है और पिछले
दस सालों से
भी लगातार यही
पार्टी सत्ता में रही
है।
Ashfaq Ahmad
Ashfaq Ahmad
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