आप का लखनऊ-2




आप का लखनऊ-2 


पिछले भाग में जिन समस्याओं की तरफ मैंने इशारा किया, उनका एक कारण अगर नगर निगम की सुस्ती और अकर्मण्यता है तो दूसरा ट्रैफिक पुलिस का गैर ज़िम्मेदाराना रवैया और कम संख्याबल। ट्रैफिक पुलिस से जुड़े लोगों की दिलचस्पी लोगों से यातायात नियमों का पालन कराने में कम और वसूली में ज्यादा रहती है। शहर में धड़ल्ले से बेतरतीब दौड़ते, यातायात नियमों की धज्जियाँ उड़ाते ऑटो-टैक्सी वालों से पूछ के देख लीजिये -- इनकी दीदा-दिलेरी का मुख्या कारण वो सुविधा शुल्क ही है जो ये अदा करते हैं।
एक जागरूक नागरिक होने के नाते कुछ सुझाव अर्ज़ हैं -- चाहें  तो ज़िम्मेदार  पदों पर बैठे लोग इन्हें संज्ञान में ले सकते हैं।
दो काम तो नगर निगम वाले कर सकते हैं। सड़कों के किनारे  और बीच से धूल-मिटटी को हटा कर इसका उपयोग कही किसी बंधे या पुल में कर सकते हैं या कहीं की असमतल, गड्ढों वाली ज़मीन को बराबर करने में ला सकते हैं। मिटटी फसल की तरह तो पैदा होती नहीं की रोज़ हो जाएगी ... हर 5-6 महीने में एक बार अभियान चला कर इस धूल-मिटटी को हटाएंगे तो लखनऊ को इस धूल-मिटटी से निजात दिला सकते हैं। सड़कों की खुदाई के नियम इतने मुश्किल कर दिए जाएँ कि कोई भी इसे खोदने की हिम्मत कर पाये बल्कि जिस विभाग या कंपनी को खुदाई करनी है उसे 6 महीने पहले अनुमति लेने की बाध्यता हो और साथ ही वो ये भी सुनिश्चित करे की खुदाई के बाद सड़क या उसके किनारे को उसे पहले जैसा ही करना होगा कि धूल-मिटटी  को वैसे ही पड़े रहने देगा और अपना काम ख़त्म करके चलता बनेगा जैसा कि अभी का रिवाज है।
दूसरा काम नगर निगम मुंबई की तर्ज पर यह कर सकता है की रोज़ कुछ गाड़ियां अतिक्रमण विरोधी अभियान पर निकलें और अनधिकृत ठेले, रेडियां, खोखे वगैरा ज़ब्त करें -- ऐसे लोगों से जुरमाना वसूलें, जिससे एक तो कुछ राजस्व की प्राप्ति होगी और दूसरे लोगों में थोड़ा डर भी बैठेगा, जिससे अनियंत्रित-बेतरतीब बढ़ते अतिक्रमण पर कुछ हद तक अंकुश लगेगा। नगर निगम लोगों के विरोध के डर को पीठ दिखाने का बहाना बनाये। ऐसा मुंबई में आम होता है। स्टाफ की कमी है तो संविदा पर नए लोग रखे जा सकते हैं। आखिरकार शहर और शहर की आबादी भी तो लगातार बढ़ ही रही है।
अब आते हैं यातायात पुलिस पर जिस पर ज्यादा ज़िम्मेदारी आती है। उनके पास स्टाफ कम है यह सर्वविदित है। यहाँ संविदा पर ही सही पर नयी भर्तियां अनिवार्य हैं। यहाँ भी हम मुंबई का एक मॉडल प्रयोग कर सकते हैं। एक टो करने वाले वाहन के साथ एक कांस्टेबल अपने साथ कुछ ऐसे लड़कों को लिए, जिनके खर्चे उसे ही निकालने है सड़क पर निकले और गलत पार्क की गयी गाड़ियों को उठा ले। जिसे छुड़ाने के लिए वाहन मालिक को २०० का चालान भरना पड़े, जिसमे से १०० सरकारी खाते में और १०० गाड़ी लाने वाले कांस्टेबल का कमीशन जिसमे से उसे अपने वाहन का खर्च भी निकालना है और साथ चलने वाले लड़कों का भी, जो उसका अपने तौर पर रखा स्टाफ होगा और गाड़ियां उठाने में सहयोग करेगा।
अभी लोग जो चालान से बचने के लिए १००-५० उन्हें देते हैं जब सरकार से ही उन्हें मिलने लगेगा तो वह तन मन से जुटकर इस अभियान पर निकल पड़ेंगे कि कहीं कोई गलत पार्किंग करने पाये। इसके कई सकारात्मक परिणाम होंगे -- लोग कहीं भी गाड़ी खड़ी करके चलते बनने की आदत से बाज़ आएंगे। जाम का एक कारण ख़त्म होगा। जिन लोगों ने सड़कों को निजी पार्किंग बना रखा है, उन्हें सबक मिलेगा और सरकार को राजस्व की भी प्राप्ति होगी -- साथ ही कई बेरोज़गारों को काम भी मिल जायेगा। साथ ही गाड़ियों की पी. यू. सी. की चेकिंग भी लगातार हो -- प्रदूषण फैलाने वालों के निरंतर चालान हों तो शहर की मुख्य सड़कों की हवा पीक ऑवर में भी प्रदूषण मुक्त होगी और लोग भी चालान के डर से अपने वाहनों को चुस्त दुरुस्त रखेंगे।
इसके सिवा हर मोहल्ले में दस दस ऐसे लोगों की समिति बनायीं जाए जिन्हें सामाजिक सरोकारों में दिलचस्पी हो और वे किसी राजनितिक पार्टी से सम्बंधित हो,कि एक एक अच्छी कोशिश भी राजनीति की भेंट चढ़ जाए। यह लोग अपने साथ दूसरे लोगों को भी जोड़ेंगे और अपने आसपास, अपने इलाके में होती किसी भी सरकारी-गैर सरकारी गतिविधि, कार्रवाई, या कार्य, जो गलत हो, नियम विरुद्ध हो, उसका संगठित विरोध करें। इन समितियों के साथ मिल कर लोगों को जागरूक करें कि कहीं भी कोई गलत कार्य हो रहा है, कोई अतिक्रमण हो रहा है, कोई सरकारी कार्य रिश्वत या करप्शन की भेंट चढ़ रहा है, कोई पुलिस वाला, कोई ट्रैफिक पुलिस वाला, नगर निगम से सम्बंधित कर्मचारी रिश्वत ले रहा है -- कुछ गलत कर रहा है तो उसका फोटो खींच कर, या उसका वीडियो बना कर -- अपने मोहल्ले की अधिकृत समिति के माध्यम से किसी मंच पर अपनी बात रखें और उस पर कार्रवाई भी हो, जिससे लोगों को लगे वे भी सुधारों में सहयोग और सहभागिता कर सकते हैं।
ज्यादातर अतिक्रमण तो छुटभैये नेताओं की मेहरबानी से होता है, जिनके खिलाफ जब सरकारी महकमा एक्शन लेने की कोशिश करता है तो यह लोगों की भीड़ को अपनी ढाल बना लेते हैं लेकिन जब सरकारी तंत्र समितियों के माध्यम से लोगों को ही इनके खिलाफ खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करेगा तो इनकी नेतागीरी नहीं  चल पाएगी।
ज़रूरत इतनी है कि इस टाइप के लोगों का झंडा देखा जाए कि हरा है या नीला। जब कोई अच्छा काम होगा तो पूरा शहर सराहेगा। ज़रूरत इस बात की भी है कि इन समितियों को बना कर इन्हें राम भरोसे छोड़ दिया जाए -- बल्कि समय समय पर सिर्फ इनका उत्साह-वर्धन किया जाये बल्कि सबसे अच्छा कार्य करने वाली समिति को नकद पुरस्कार वगैरा से  सम्मानित भी किया जाये।    

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