डी. बी. टी. एल. यानी हिडेन एजेंडा
डी. बी. टी. एल. यानी हिडेन एजेंडा
आजकल बहुत से लोग बैंक और गैस एजेंसी के बीच लुढ़कते मिल जाते हैं -- सरकार की डी. बी. टी. एल. योजना का हिस्सा बन्ने के चक्कर में। करें भी क्या -- न हिस्सा बनें तो गैस सिलेंडर नौ-साढ़े नौ सौ का गले पड़ेगा। आधार वालों का तो फिर ठीक है -- लेकिन नान आधार वालों के साथ समस्या यह है कि एजेंसी वाले बैंक की तरफ टरकाने की कोशिश करते हैं तो बैंक वाले एजेंसी की तरफ।
पर
एक सवाल मन
में आजकल अक्सर
उठता है कि
इस क़वायद की
ज़रूरत क्या थी
-- सरकार का तर्क
हो सकता है
कि अनधिकृत, अवैध
कनेक्शनों को ख़त्म
करना और सब्सिडी
का लाभ सीधे
गैस उपभोक्ता तक
पहुँचाना हो -- लेकिन साल
भर पहले जब
आप के. वाई.
सी. नामक प्रोग्राम
चला कर अवैध
कनेक्शनों की छंटनी
कर चुकने और
बैंक खातों को
जोड़ने की कसरत
कर चुके हैं
तो यह बात
किसके गले उतरेगी।
दरअसल डी. बी.
टी. एल. के
साथ एक सरकारी
हिडेन एजेंडा भी
जुड़ा हुआ है
जिसका ज़िक्र इस
क़वायद में कहीं
नहीं होता। सरकार
का एकमात्र उद्देश्य
गैस पर दी
जाने वाली सब्सिडी
को ख़त्म करना
या न्यूनतम करना
है। अब अगर
कोई भी सरकार,
चाहे पहले की
अलोकप्रिय कही गयी
यू. पी. ए.
की सरकार हो
या वर्तमान में
लोकप्रिय कही जाने
वाली मोदी सरकार
हो -- सिलेंडर के
दाम सीधे बाज़ार
के हवाले कर
देती तो निश्चित
था कि आगे
आने वाले कई
चुनावों में उसे
इसकी कीमत चुकानी
पड़ती। इससे बचने
के लिए आला
सरकारी दिमागों ने मखमल
में लपेट कर
जूता मारने की
स्कीम बनायीं, जिसे
नाम दिया गया
-- डी. बी. टी.
एल.।
इससे
होगा यह कि
हर उपभोक्ता चाहे
वह गरीबी रेखा
से नीचे ही
क्यों न पाया
जाता हो --बाजार
भाव से यानि
लगभग साढ़े नौ
सौ का सिलेंडर
खरीदने की सरकारी
दृष्टि में 'अच्छी
आदत' डालेगा और
सरकार शुरूआती दौर
में उसके खाते
में सब्सिडी के
पैसे यानि लगभग
500 रूपये डालेगी
और विज्ञापनों एवं
भाषणों के ज़रिये
जनता के बीच
ढिंढोरा पीटा जायेगा
कि कैसे सरकार
उन्हें 500 रूपये
की नकद सब्सिडी
हर सिलेंडर पर
दे रही है
जो सामने से
दिखेगी।
कोई
यह न कह
सके कि मेरा
बैंक खाता नहीं
है इसके लिए
पहले ही प्रधानमंत्री
जन-धन योजना
का बैनर दिखा
कर ज्यादा से
ज्यादा लोगों के जीरो
बैलेंस वाले खाते
खुलवा दिए गए
हैं ताकि सभी
उपभोक्ताओं के खाते
लिंक कराये जा
सकें।
अब
आगे की जो
तस्वीर है वो
धुंधली है और
वही असली एजेंडा
है। सिलेंडर लेते
वक़्त तो आपको
बाज़ार भाव के
दाम ही देने
हैं, इसके बाद
सब्सिडी का पैसा
आया या नहीं
इसके लिए आप
शुरुआत में तो
नए जोश के
साथ अपने बैंक
के चक्कर लगाने
से गुरेज़ नहीं
करेंगे। शुरुआत के कुछ
महीने सब ठीक
चलेगा -- इसके बाद
सब्सिडी का पैसा
वज़ीफ़े की लाइन
पर मिलना शुरू
हो जायेगा। 'अभी
नहीं आया -- अगले
महीने बाद आएगा।
तीन महीने से
नहीं आया -- चौथे
महीने में आएगा।
' टाइप की कुछ
लाइनें आपको सब्र
करने पर मजबूर
कर देंगी कि
अब सिलेंडर तो
आपको मार्किट रेट
से ही लेने
हैं -- सब्सिडी साल भर
में मिल ही
जाएगी।
यह
होगा पहला झटका -- दूसरा झटका तब लगेगा जब सब्सिडी में कटौती होनी शुरू होगी। अभी पांच
सौ हैं, कुछ महीनों में सरकार फैसला सुनाएगी अब सिलेंडर पर सब्सिडी सिर्फ 400 सब्सिडी
रूपये मिलेगी -- कुछ महीनों बाद तीन सौ और
फिर ऐसे ही होते होते शायद यह सब्सिडी एक दिन 50 रूपये ही रह जाए या बिलकुल ख़त्म कर
दी जाए। आप सिलेंडर बाज़ार भाव से 950 या 1000 का ले रहे हैं यह आपको दिखेगा और बैंक
में सब्सिडी जो आगे दो तीन महीने लेट मिलेगी -- कहाँ से कहाँ पहुँच कर आपको मिल रही
है, यह आपको नहीं दिखेगा जिससे आपको तकलीफ भी कम होगी और आपकी आदत भी तब तक बन जाएगी
1000 रूपये में सिलेंडर लेने की -- इस तरह सरकार आपको मखमल में लपेट कर जूता मारने
में कामयाब रहेगी।
पर
अगर हम इस मुद्दे पर गंभीरता से मनन करें तो कई बातें सामने आती हैं। भारत की ज्यादातर
आबादी गरीब और मध्य वर्गीय है, जिसे सरकारी सहायता की ज़रूरत है। देखा जाए तो ग्रामीण भारत में गैस का उपयोग नाम
मात्र ही होता है। वहां आज भी लोग लकड़ी और गोबर के कंडों पर आश्रित हैं। गैस का उपयोग
शहरी अर्ध-शहरी क्षेत्र के लोग करते हैं और इसमें भी बड़े शहरों में उन लोगों का बड़ा
हिस्सा मिलेगा जो रोज़ी रोटी के चक्कर में शहर
पहुँचते हैं और किराए से रहते हैं। उनके पास वैध कनेक्शन नहीं होते -- या वे बाजार
भाव से सिलेंडर लेते हैं या एक दो किलो गैस लेकर काम चलाते हैं। ऐसे में कितने लोग
और परिवार तो ऐसे ही इस दायरे से बाहर हो जाते हैं। जो बचते हैं उनमे पांच लोगों के
परिवार को महीने में एक सिलेंडर पर 500 रूपये की सब्सिडी -- यानि प्रति व्यक्ति 100
रूपये की सब्सिडी देने में भी सरकार को दिक्कत है।
जबकि
अगर देखा जाए तो इसी देश की जनता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों द्वारा चुकाए पैसों
का सरकारी दुरूपयोग किस तरह होता है, यह देख कर तो किसी शर्मदार इंसान की आँख का पानी
ही सूख जाए। साल भर के नेताओं- अधिकारियों के अपने लश्कर सहित विदेशी दौरे, पांच सितारा
होटलों में होने वाली सरकारी मीटिंग्स, यहाँ वहां विचरते नेताओं-मंत्रियों-अधिकारीयों
के काफिलों का खर्च, केंद्र और राज्य से जुडी ऐसी ढेरों समितियां, आयोग, विभाग जो मृतप्राय
पड़े हैं -- उनसे सम्बंधित भवनों, कर्मचारियों, अधिकारियों पर होने वाला व्यय … इसके
सिवा सरकारी योजनाओ -परियोजनाओं और निर्माण कार्यों में होने वाली लूट … इन सारे खर्चों
को एकसाथ मिला लिया जाये तो साल भर में दी जाने वाली गैस सब्सिडी से कई गुना ज्यादा
पैसा बर्बाद होता दिखेगा लेकिन सरकार में शामिल लोगों को अपने गैर ज़रूरी खर्च और अपने
बीच होती लूट देखने की फुर्सत नहीं होती -- उन्हें दिखती है तो लोगों को दी जाने वाली
वो सब्सिडी जिसे ख़त्म करने के लिए उसे डी. बी. टी. एल. जैसे प्रपंचों का सहारा लेना
पड़ता है।
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