दलित चेतना

दलित चेतना 

मुंबई में एक जान चाचा थे जो अक्सर गांव की एक कहानी सुनाया करते थे... गाँव में ठाकुर साहब ने एक बैल पाल रखा था। बहुत मरकहा बैल था जिससे पूरा गांव त्रस्त था, पर ठाकुर साहब तो ठहरे ठाकुर साहब-- किसकी मजाल कि बैल को नुकसान पहुंचाये या ठाकुर साहब से शिकायत करे। एक दिन बैल ने एक पासी को ऐसे सींग मारे कि बेचारे ने प्राण ही त्याग दिये। अब तो गांव वालों के सब्र का प्याला छलक उठा। अब बात ठाकुर साहब तक पहुंचानी जरूरी थी। सारे गाँव वालों ने मिल कर गांव के ही पंडित जी को चुना-- कि बात ठाकुर साहब तक पहुंचाये। तो पंडित जी थोड़ी क्रोधित मुद्रा में ठाकुर साहब के दरबार में पेश हुए और अपनी चिंता कुछ इन शब्दों में व्यक्त की-- "ठाकुर साहब, अपने बैल को नियंत्रण में रखिये-- आज इसने एक शूद्र की जान ली है, कल किसी इंसान को मार दिया तो??? यानि शूद्र की जान नहीं... सैकडों साल पहले समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों ने, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में समाज को चार वर्गों में बांटा था, उन्होंने स्वयं को शासक के रूप में नहीं रखा, बल्कि बहुत ब्रह्मा के प्रतिनिधि (सर्वश्रेष्ठ और प्राणदंड से मुक्त) के रूप में रखा, ताकि सभी प्रकार के शासन और शासकों के बीच उनकी महत्ता बनी रहे। उन्होंने भारत के तीन चौथाई से ज्यादा मूल निवासियों के दिल दिमाग में ही नहीं, अपितु उनके जींस तक में यह बात बिठा दी कि वे सिर्फ ऊपर के वर्ग के लोगों का काम काज और उनकी सेवाश्रूषा हेतु ही जन्मे हैं--इससे अधिक उनका कोई औचित्य नहीं। उनके लिए सिर्फ पवित्र ग्रंथ वर्जित थे बल्कि वह संस्कृत भाषा,जिसमें वे लिखे गये-- भी वर्जित थी और इस वर्जना को तोड़ने की सजा मौत तक थी। आज सदियों बाद इतना बदलाव तो आया है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के बीच ऐसे लोग पैदा हुए हैं जिन्होंने इस वर्ण व्यवस्था को ठुकराया है, जिन्होंने इन मनुवादी मान्यताओं को दरकिनार किया है, पर आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनके लिए किसी शूद्र के मंदिर में प्रवेश से लेकर, उनके हाथ का छुआ पानी भी निषेध है। भारत में आज भी उन लोगों की संख्या कम नहीं जिनकी मानसिकता आज भी उन्हीं मनुवादी मान्यताओं में जकड़े हुए हैं और समस्या यही है कि कई बड़े संगठनों (आर.एस.एस, वीएचपी, बजरंग दल आदि) और बड़ी पार्टियों (कांग्रेस, भाजपा) के मुख्य पदों पर इसी वर्ग के लोग अधिपत्य जमाये बैठे हैं जिनके लिए वे सभी जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नहीं हैं यानि दलित, आदिवासी, मलेच्छ दोयम दर्जे के प्राणी हैं जिनके प्राण लेने से पाप नहीं लगता।
हाँ चूंकि इनकी संख्या बहुत ज्यादा है इसलिए दलितों पिछड़ो (सामान्य भाषा में कर्म से शूद्र) को जब तब "हिंदू" (हालांकि यह शब्द वेदों/पुराणों से प्रमाणित नहीं) होने का भरोसा दिलाया जाता है-- जब इनके वोटों को अपने पक्ष में ध्रुवीक्रत करना हो या दादरी, नाहन, ऊधमपुर टाईप घटनाओं, या 92, गुजरात, मुजफ्फरनगर टाईप दंगों में उनकी शक्ति इस्तेमाल करनी हो-- वर्ना आम हालात में इस अस्पृश्यता में कोई बड़ी कमी आई होती तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात आदि में इन मूल निवासियों के साथ ऐसा व्यवहार होता, जो जब तब सामने आता रहता है।
इनकी सारे मूलनिवासियों को हिन्दू होने का भरोसा दिलाने की कोशिश में कई सवाल पैदा हो जाते हैं... ये जितने भी हिन्दू राष्ट्रवादी, संस्कृति के रक्षक टाईप संगठन और उनकी अनुषांगिक इकाइयां हैं उनमे कभी अपने पदों पर दलितों/पिछड़ों को बिठाने के उदाहरण नहीं मिलते, न इनकी देश भर में अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन चलाने में कोई रूचि दिखती है और न ही कभी देश के जिन मंदिरों में शूद्रों का प्रवेश वर्जित है, उनके पुजारियों/महंतों के खिलाफ उन्होंने कभी कोई आवाज़ उठाई है... साथ ही एक सवाल आपसे भी... 'गर्व से कहो हम हिन्दू है' का उद्घोष कराने वाले आपको क्या कभी ऐसे प्रयास करते दिखाई देते हैं?

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