विरोध में विरोधाभास


विरोध में विरोधाभास



पेरिस पर हुए हमले को लेकर दो तरह की प्रतिक्रयाएं सामने आ रही हैं...एक तरफ वह लोग हैं जो इस घटना का विरोध कर रहे हैं और दूसरी तरफ वह लोग जो फिलिस्तीन, सीरिया, ईराक में मरने वाले लोगों के हवाले से इसे जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। इन हालात पर अंकल सैम को भी शिकायत हो गई है कि मुसलमान इस घटना की खुल कर निंदा नहीं कर रहे और तस्लीमा नसरीन ने तो बाकायदा एडवाइजरी जारी कर दी है कि मुसलमानों को कैसे रहना चाहिए और कैसे बच्चों की परवरिश करनी चाहिए।
भारत में विरोध करने वालों में उन लोगों की बड़ी तादाद है, जिनके कानों में तब जूं तक नहीं रेंगी थी जब झाबुआ में एसे ही धमाकों में सौ के आसपास लोग एसे ही बेमौत मारे गये थे और घटना का विरोध नहीं करने वालों में उन लोगों की बड़ी संख्या है जिन्हें इस वक्त तो मोदी भक्तों की तरह यह पूछना सबसे जरूरी लगता है कि तब क्यों नहीं दुख हुआ जब फिलिस्तीन में बेगुनाहों को मारा गया, तब क्यों नहीं विरोध किया जब बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों का कत्लेआम किया गया... साफ बात है कि एक की पीड़ा सिर्फ तब दिखती है जब मारने वाले मुसलमान हों और दूसरे का विरोध सिर्फ तब दिखता है जब मरने वाले मुसलमान हों।
हम तो इंसान के यूं मारे जाने का मातम मनाने वालों में से हैं, फिर चाहे वह किसी भी धर्म का हो और किसी के भी हाथों मारा गया हो... फ्रांस की घटना भी उतनी ही दुखद, शर्मनाक और इंसानियत के नाम पर कलंक है जितनी दुखद, शर्मनाक और इंसानियत के नाम पर कलंक फिलिस्तीन, सीरिया, बर्मा वगैरह में हुए वह कत्लेआम, जिनमें बड़े पैमाने पर मुसलमानों को मारा काटा गया।
मैं इस घटना के विरोध और समर्थन में खड़े दोनों वर्गों से कुछ पूछना चाहता हूं... जो आज विरोध करने वालों के पास जा जा कर भक्तों की तरह पूछ रहे हैं कि तब क्यों नहीं-तब क्यों नहीं-- क्या वह तब भी यही सवाल पूछते हैं जब पाकिस्तान, अरब, यमन, ईराक, सीरिया वगैरह में बड़े पैमाने पर आत्मघाती हमले करके शिया मुसलमानों का कत्लेआम किया जाता है और करने वाले यही इस्लाम के नाम पर लड़ने वाले होते हैं जो पेरिस अटैक के जिम्मेदार हैं, भले तब फेसबुक ट्विटर पर इतनी चर्चा न होती हो, पर न्यूजपेपर और न्यूज चैनल्स के पेज इन खबरों को पब्लिश भी करते हैं और लोग उनकी पोस्ट शेयर करके अपना विरोध भी जताते हैं। जब आई. एस. के लोग अपने विरोध में खड़े लोगों का कत्लेआम करते हैं चाहे वह मुस्लिम ही क्यों न हों और लोग सोशल मीडिया पर विरोध करते हैं तो उनसे भी तब क्यों नहीं-तब क्यों नहीं वाले सवाल पूछते हैं क्या... जब इस्लाम के नाम पर ही हथियार उठा कर इस्लामी हुकूमत कायम करने के मिशन पर निकले बोकोहरम के लोग गांव के गांव जला देते हैं, लूटपाट करते हैं, मस्जिदों को निशाना बनाते हैं और इनके शिकार ज्यादातर मुस्लिम ही होते हैं... इन अतिवादी कार्रवाइयों का विरोध करने वालों के पास जाकर भी तब क्यों नहीं-तब क्यों नहीं वाले सवाल कभी पूछें हैं क्या.. जब तहरीक-ए-तालिबान के हत्यारों ने पेशावर में मासूम बच्चों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया था और सिर्फ पाकिस्तान के लोगों ने ही नहीं, आज की ही तरह तब भी पूरी दुनिया ने इस घटना का विरोध किया था, क्या तब भी किसी ने विरोध करने वालों से पूछा था तब क्यों नहीं?
दूसरी तरफ मैं उन लोगों से, जिनकी पीड़ा सिर्फ तब जाग्रत होती है जब मारने वाले मुसलमान हों-- मैं उनसे भी पूछना चाहता हूं कि इस सिलसिले की शुरुआत किसने की, क्या अफगानिस्तान में रशिया की फौज से लड़ने के लिए पाकिस्तान के सहारे हथियार और ट्रेनिंग देकर तालिबान को अमेरिका ने नहीं खड़ा किया और बाद में उन्हें ही खत्म करने के लिए पूरे देश को नहीं तबाह कर दिया... लाखों मरे-बेघर हुए, उनका कोई गम नहीं? 
क्या ईराक और अरब देशों की हालत पहले एसी थी? किसने जबर्दस्ती के लोकतंत्र की स्थापना के बहाने इस पूरे भूभाग को आंतरिक संघर्षों की भट्टी में झोंक दिया? एक सफेद झूठ के सहारे बुश ने सिर्फ सद्दाम को ही अपदस्थ नहीं किया, बल्कि पूरे देश को तबाह कर के रख दिया, इस जंग में कितने बेगुनाहों की जान अमेरिका और उसके चेलों ने ली... इसकी कोई गिनती है? तब उन ईराकियों का गम आज की तरह पूरी दुनिया का गम क्यों नहीं बना... सिर्फ उजड़े तबाह हुए ईराकियों का ही गम माना गया? 
उससे पहले था कहीं आई. एस.? उसके बाद ही वजूद में आया, उसकी विचारधारा कितनी भी गलत क्यों न रही हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसे खादपानी इन्हीं सताये हुए लोगों से मिली... और अब इसी आई. एस. को खत्म करने के लिये अमेरिका, रूस और अमेरिकी चेले चपाटों की तरफ से जो लगातार बमबारी हो रही है, उसके शिकार जितने आई. एस. वाले हो रहे हैं उससे कई गुना ज्यादा बेगुनाह और मासूम लोग भी हो रहे हैं। अगर आप सवा सौ फ्रेंच नागरिकों के मरने का गम मना सकते हैं तो आपको उन लाखों मुसलमानों का गम भी मनाना चाहिए जो इन पश्चिमी दादाओं के हाथों मारे गए और यह सिलसिला, आई. एस. के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर ईराक़, सीरिया लगातार जारी है।

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