चुनाव सुधार

क्या चुनावी सिस्टम में सुधार नहीं होना चाहिये 

kya chunavi system me sudhar nahi hona chahiye
Election Reform 

  • सत्ता की भूख में गिरता नेता का चरित्र

छत्तीसगढ़ से सम्बंधित एक केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शादी का वादा कर के सेक्स करना भी रेप की श्रेणी में आयेगा। यह क्लियर चीट है.. मेरी नजर में भी यह क्लियर चीट है कि किसी से कोई वादा करके उसे भरोसा दिलाया जाये और फिर काम निकलते ही उस भरोसे को तोड़ दिया जाये।

पर क्या कभी हम ध्यान देते हैं कि इस धोखेबाजी नंगा और बेशर्म प्रयोग उस व्यवस्था में धड़ल्ले से किया जाता है जिसके सहारे देश और राज्यों की सरकारें चलती हैं। आज के जमाने में आदमी इतना स्वार्थी हो गया है कि निजी हित से परे न किसी विचारधारा का सगा है और न ही किसी वादे का।

राजनीति के दलदल में उतरने वाला कोई भी नेता (बड़ी पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को छोड़ कर) आज इस पार्टी में है कल उस पार्टी में। छोटी पार्टियाँ तो शीर्ष नेतृत्व समेत कभी इनके साथ खड़ी हैं तो कभी उनके साथ। आप चाह कर भी उनमें स्थाई चरित्र नहीं ढूंढ सकते।

ठीक है कि यह उनका संवैधानिक अधिकार हो सकता है लेकिन इससे जो जनता के अधिकारों का हनन होता है उसका क्या.. लोकतंत्र में जनता बड़ी है या नेता? एक विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र की जनता सामने खड़े भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों में से एक को जिताती है और वह आगे जा कर उसी हारने वाली पार्टी से खड़ा हो जाता है.. क्या यह शादी का झांसा दे कर सेक्स करने जैसा धोखा नहीं है?

इसका आज की तारीख में सभी भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। खास कर जहां लंबे समय से सत्ता परिवर्तन न हो रहा हो, वहां सत्ता के अपोजिट जीता कैंडीडेट बेहद अस्थिर मनास्थिति वाला व्यक्ति होता है।

पाॅवर और पैसा सबको चाहिये होता है और वह सत्ता के साथ रह कर ही हासिल हो सकती है। बिना सत्ता के तो किसी विधायक या सांसद के लिये उस धन की वापसी तक मुश्किल हो जाती है जो उसने जीतने के लिये इनवेस्ट की होती है। ऐसे में जरा सा लालच उसे तोड़ने के लिये काफी होता है।
ज्यादा से ज्यादा होता क्या है, उसे इस्तिफा देना पड़ता है लेकिन इस कुर्बानी के बदले या तो सत्ता वापस उपचुनाव में उसे अपनी तरफ से लड़ाती है और चूँकि जनता के लिये क्लियर हो चुका है कि सरकार किसकी है तो ऐसे उपचुनावों के नतीजे अक्सर सत्ता के पक्ष में ही जाते हैं।
हार तभी हासिल होती है जब सामने वाले की शख्सियत उसके मुकाबले बहुत ज्यादा मजबूत हो। या उपचुनाव न भी लड़े तो बंदे को दूसरे तरीकों से ओब्लाईज कर दिया जाता है। सरकार के पास ऐसे कई नुस्खे होते हैं।

  • सुविधा, लालच या दबाव में नेता का आस्था परिवर्तन

इसे आप गुजरात से समझ सकते हैं जहां कई कांग्रेसी विधायक अब भाजपाई हो गये हैं। हाल ही में राजस्थान और मध्यप्रदेश में कई ऐसे चेहरे थे जो कांग्रेस के खिलाफ जीते थे लेकिन अब कांग्रेसी हो चुके हैं। बंगाल में वर्चस्ववाद ऐसा चलता है कि लेफ्ट के हाथ सत्ता आती है तो कांग्रेस के नेता से ले कर कार्यकर्ता तक मैनेज करके विपक्ष को लगभग खत्म कर दिया जाता है।


और जब टीएमसी के हाथ सत्ता आती है तो वह इसी तरह लेफ्ट को ठिकाने लगा देती है.. कल को भाजपा वहां आती है तो इसी तरह वह टीएमसी को ठिकाने लगा देगी। जनता विकल्प के रूप में विपक्ष को चुने भी तो वह बाद में मैनेज हो जाता है।

यह तो फिर भी एक क्षेत्र विशेष के लोगों के साथ धोखा हुआ लेकिन यूपी बिहार में तो पूरे प्रदेश को ही यह धोखा दे लिया जाता है। मतलब यूपी में अगर मुस्लिम वोटर को पहले से पता हो जाये कि बसपा भाजपा के साथ मिल के सरकार बना लेगी तो क्या कोई मुस्लिम वोट देता बसपा को?

बिहार भाजपा-जदयू गठबंधन को बिहार की जनता ने जनादेश दिया था लेकिन बीच रास्ते नीतीश ने भाजपा छोड़ के अपनी अलग सरकार बना ली.. इतना ही काफी नहीं था, उन्होंने कांग्रेस राजद के साथ मिल कर महागठबंधन बनाया और फिर चुनाव में गये।

जनता ने महागठबंधन को सत्ता सौंपी लेकिन थोड़े ही वक्त में वे फिर गठबंधन तोड़ कर उसी भाजपा के साथ मिल कर सरकार चलाने लग गये, जिसके खिलाफ जनादेश मिला था। क्या यह क्लियर चीट नहीं? सरकार भाजपा के साथ ही बनवानी होती तो जनता भाजपा को ही न सत्ता सौंप देती। गठबंधन के नाम पर विकल्पहीनता के चलते जदयू को वोट देने वाले उन वोटर्स के साथ क्या यह सीधा विश्वासघात नहीं था जो किसी हाल में सरकार बनाने के नाम पर भाजपा को कभी न वोट करते?

  • नेताओं के लिये कोड ऑफ़ कंडक्ट की ज़रुरत

अब यह धोखे बेहद आम हो चले हैं.. जनता इसमें सीधे-सीधे ठगी जाती है। क्या इस प्रक्रिया में सुधार की गुंजाइश नहीं है? इस मामले में सबसे ज्यादा मार छोटी पार्टियाँ खाती हैं जिनके विधायक सांसद टूटने टेक्निकली बेहद आसान होते हैं।

मेरे ख्याल से इसके लिये भी कोड ऑफ कंडक्ट की सख्त नियमावली, किसी तरह का कोई ऐसा एग्रीमेंट जो पार्टी की तरफ से हो और प्रत्याशी को यह सीधा मैसेज देता हो कि वह यह सोच समझ कर दल का चयन करे कि उस विधानसभा या संसद के पूरे टर्म भर वह किसी भी तरह से न दल बदल कर सकता है, न पार्टी छोड़ सकता है और न ही पार्टी आदेश के खिलाफ जा सकता है, जो अक्सर वे क्रास वोटिंग के जरिये करते हैं।

शर्ते मंजूर होने की दशा में ही कैंडीडेट दल का चयन करे और नियम तोड़ने पर उस जुर्माने का भागीदार हो जो पार्टी तय करे। इस नियम से यह नेताओं की इंडीविजुअली चल-चल और अस्थिर मानसिकता पे रोक लगाई जा सकती है, साथ ही उसके क्षेत्र की जनता के जनादेश की रक्षा की जा सकती है।

बाकी जो खेल नीतिश ने आगे पीछे दो बार खेला, उसके खिलाफ भी 'राईट टु रीकाॅल' टाईप कोई प्रावधान होना चाहिये कि जिस गठबंधन के साथ आप जनता के बीच जा रहे हैं, उसे बीच टर्म में छोड़ तो सकते हैं लेकिन दूसरे को साथ ले कर सरकार बनाने के विकल्प पर नहीं जा सकते बल्कि वापस जनता के बीच मैंडेट लेने जाना पड़ेगा।

आखिर जनता को इस तरह कब तक छला जाता रहेगा कि जिसे हराने के लिये वह वोट करती है, कल को जीता हुआ कैंडीडेट उसी के साथ खड़ा हो कर जनता को चिढ़ा रहा होता है।



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