जूपिटर/बृहस्पति ग्रह

 


बृहस्पति ग्रह हकीकत में कैसा है  

हमारे सोलर सिस्टम के चार राॅकी प्लेनेट हैं, यानि जिनकी सतह ठोस है.. उनमें मंगल क्रम में आखिरी है और पृथ्वी से काफी छोटा है। कभी पृथ्वी और शुक्र की तरह इस पर भी बड़े-बड़े समंदर थे लेकिन बाद में उसका कोर ठंडा हो गया, जिससे इसकी मैग्नेटिक फील्ड खत्म हो गयी और सोलर रेडिएशन ने इसके पानी को वेपराइज करके उड़ा दिया।

लाईफ को लेकर एक थ्योरी कहती है कि जीवन पनपने लायक स्थितियां पृथ्वी से पहले मार्स पर पनपी थीं तो शुरुआती सिंगल सेल लाईफ वहीं पनपी थी, जो किसी इम्पैक्ट के बाद स्पेस में उछली कुछ चट्टानों के जरिये पृथ्वी तक पहुंची थी।
इसके बाद के सभी ग्रह गैस जायंट्स हैं जिनमें एक बात काॅमन है कि इनके पास ठोस सतह नहीं, लिक्विड कोर पर गैसें भरी हैं जिनमें हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन आदि मुख्य हैं.. इन सभी के पास उपग्रहों (चांद) की भरमार है और क्रमशः जूपिटर (79), सैटर्न (53-82), यूरेनस (27), नेप्चून (14) उपग्रह रखते हैं। सभी के पास रिंग्स (बाहरी छल्ले) हैं...

लेकिन शनि को छोड़ बाकियों के इतने हल्के हैं कि दिखाई नहीं देते, वहीं शनि के छल्ले काफी डेंस और मोटे हैं जो साधारण टेलिस्कोप से भी दिख जाते हैं। यह रेत के कण से ले कर कई किलोमीटर चौड़े तक आईसी बाॅडीज हैं लेकिन सूरज धीरे-धीरे इन्हें खत्म कर रहा है और यह बारिश के रूप में शनि पर जज्ब हो रहे हैं।
जूपिटर सबसे मेन वह ग्रह है जिसने सोलर सिस्टम के गढ़न में मास्टर रोल निभाया है, इसने न सिर्फ तब एक अहम रोल निभाया था जब ग्रह बन रहे थे, बल्कि आज भी अपनी स्ट्रांग ग्रेविटी की वजह से यह सोलर सिस्टम में आने वाले ज्यादातर आवारा पिंडों को अपनी तरफ खींच कर उनके हमलों से पृथ्वी को सुरक्षित रखता है।
यह जितना बड़ा है, उतने बड़े प्लेनेज स्टार के आसपास नहीं बनते, बाहरी हिस्से में बनते हैं और यह भी पृथ्वी से पहले बाहरी हिस्से में बना था और इसने सोलर सिस्टम के शुरूआती दौर में काफी कत्लेआम मचाया था और काफी मटेरियल खुद जज्ब कर के, और ढेर सा दूर स्पेस में उछाल दिया था।

इसका ऑर्बिट बाहर से अंदर की तरफ छोटा होता गया था जिससे यह वहां तक आ गया था जहां आज मार्स है लेकिन बाद में शनि आदि के बन जाने के बाद इसका ऑर्बिट पीछे हो गया था।
जब यह इनर रिंग में था तब उन आइसी बाॅडीज को साथ लाया था जो सौर सिस्टम के बाहरी सिरे पर बनती हैं (अंदर होने पे सूरज की गर्मी इनका पानी उड़ा देती), और तब यह पिंड नयी बनती पृथ्वी के काम आये थे, यह वह हैं जिनकी वजह से आज पृथ्वी की सतह के अंदर भी एक तरह का समंदर मौजूद है जो कहीं सीधे लिक्विड के रूप में है तो कहीं नमी के रूप में जिसे वाटर रिच मटेरियल कहते हैं।
एक बड़ा ग्रह बनने लायक मटेरियल मार्स के बाद भी मौजूद था लेकिन जिसे जूपिटर की ग्रेविटी ने ग्रह नहीं बनने दिया और सारे मटेरियल को एस्टेराईड बेल्ट के रूप में फैला दिया। फिर एक दौर आया जब यह सभी गैसीय पिंड अलाइन हुए, यानि एक सीधी रेखा में आये..
और इस अलाइनमेंट से पैदा ग्रेविटेशनल इफेक्ट इतना जबरदस्त था कि उसने न सिर्फ एस्टेराईड बेल्ट को डिस्टर्ब किया बल्कि काइपर बेल्ट को भी हिला दिया, जिससे करोड़ों ऐसे पिंड अंदरूनी हिस्सों की तरफ छिटके और अंदर के सभी ग्रहों-उपग्रहों पर बरस पड़े.. इस क्रिया को लेट हैवी बमबार्डमेंट कहा जाता है, इसके स्पष्ट सबूत चांद से मिलते हैं।
इस क्रिया में वे एस्टेराईड्स पृथ्वी तक भी पहुंचे जिसमें वाटर मालीक्यूल नमी के रूप में मौजूद था और इन टकराव से जो एनर्जी पैदा हुई उसने इस नमी को वेपराइज कर दिया जो बाद में बारिश बन के बरसी और पृथ्वी पर महासागरों का निर्माण हुआ। तो पृथ्वी के अंदर और बाहर का पानी जूपिटर की ही देन है और यह आज भी अपनी स्ट्रांग ग्रेविटी की वजह से तमाम बाहरी हमलों से हमारी रक्षा कर रहा है।
वैसे जिस तरह जूपिटर ने पृथ्वी तक पानी पहुंचाया था उस तरह वीनस और मार्स तक भी पहुंचाया था लेकिन अलग-अलग वजहों से दोनों अपना पानी कायम नहीं रख सके और पृथ्वी इस मामले में लकी रही.. लेकिन पृथ्वी वासी के तौर पर हम जूपिटर को उसके रोल के लिये माता या पिता की संज्ञा दे सकते हैं।
Written by Ashfaq Ahmad

No comments