मुहर्रम
मुहर्रम
मुहर्रम
चल रहा
है तो
चलो इसके
बारे में
कुछ जान
लेते हैं
कि इसकी
वाकई में
इस्लाम के
मानने वालों
के लिए
क्या अहमियत
है... नबूवत
के बाद
आप सल्लल्लाहो
अलेवसल्लम
13 साल मक्का
में रहे
और अपनी
उम्र के
तिरपनवे साल
या यूँ
कहें कि
सन 622 ईस्वी
में जब
आपने अपने
परिवार और खास
साथियों के
साथ मक्का
छोड़ कर
मदीना के
लिए कूच
किया तो
इस कूच
को हिजरत
कहा गया...
इस्लामिक साल
की शुरुआत
यहीं से
होती है
लेकिन इसका
निर्धारण हज़रत
उमर के
दौरे खिलाफत
में किया
गया... और
जब ये
तय हो
पाया कि
हम अपना
साल कहाँ
से शुरू
करें, दो
महीने से
ज्यादा गुज़र
चुके थे...
बहरहाल जब
इसका निर्धारण
हो पाया
तब तक
कई हिजरी
गुज़र चुकी
थीं... मुहर्रम
की अहमियत
हिजरी के
तय होने
से पहले
से चली
आ रही
थी... ये
महीने चाँद
के हिसाब
से उस
दौर में
भी मनाये
जाते थे
जहाँ अरब
में आबाद
सैकड़ों कबीले
एक मुक़र्रर
वक़्त पर
काबे की
तरफ सालाना
यात्रा करते
थे और
वो भी
लौँध लगा
कर तीन
साल बाद
एक महीना
डबल कर
लिया करते
थे जिससे
वो तय
शुदा हज
एक ही
मौसम में
पड़े (जैसा
हिन्दू पंचांग
में किया
जाता है),
अपने जीते
जी ही
रसूल ने
ये सिस्टम
ख़त्म करके
महीनों को
अपने कुदरती
हिसाब से
चलने की
आज़ादी दे
दी थी
जिससे एक
चक्रण के
रूप में
तारीखे साल
भर घूमती
रहती थीं
जैसे आज
तक कायम
है... उस
दौर में
रोज़े फ़र्ज़
नहीं थे
इसलिए मुहर्रम
की दस
तारिख जिसे
आशूरा कहा
जाता है,
एक अहम
तारीख थी जिससे
मान्यताओं
के हिसाब
से कई
वाकये जुड़े
हैं... कहते
हैं के
इसी दिन
खुदा ने
बादल बनाये,
बारिश हुई,
हज़रत आदम
की दुआ
कबूल हुई,
नूह की
कश्ती ज़मीन
से लगी,
हज़रत इब्राहीम
को आग
से निजात
मिली, मूसा
को फिरौन
पर फ़तेह
हासिल हुई,
हज़रत अय्यूब
के ज़ख्म
ठीक हुए...
चूँकि तारीख
नबियों से
जुडी थी
इसलिए हमेशा
से ये
अहम थी,
और पहले
9-10 मुहर्रम के
रोज़े बड़ी
पाबन्दी से
रखे जाते
थे... लेकिन
हिजरत के
4-5 साल बाद
जब रमज़ान
के रोज़े
उम्मत को
अता हुए
तब लोगों
ने बाकायदा
पूरे एक
महीने रोज़े
रखने शुरू
किये और
9-10 के रोज़ों
में उतनी
पाबन्दी न
रही ...
जब
आप सल्लल्लाहो
अलाइवसल्लम
उम्र के
आखिरी पड़ाव
पर अलील
हुए और
आपकी आँखें
बंद हुईं
तो यहीं
से उम्मते
मुस्लिमा में
एक तरह
का फर्क(मतभेद)
पैदा हुआ...
आपके जाते
ही लोगों
में इस
बात पर
इन्तेशार फैलने
लगा कि
अब खलीफा
कौन होगा
और हालात
बिगड़ने लगे...
जहाँ मक्के
वासियों (खासकर
आपके खानदान
वाले—एक
तरह का
वंशवाद क्योंकि
आपका वास्ता काबे
के मुख्य
पुजारी घराने
से था)
की ज़िद
थी कि
खलीफा(सरदार/नेतृत्वकर्ता)
मक्कावासी
बने (इशारा
हज़रत अली),
पर मदीने
वाले बज़िद
थे कि
खलीफा मदीने
से कोई
बने... ऐसे
इन्तेशार के
वक़्त उस
मौके की
ज़रुरत के
हिसाब से
हज़रत अबु
बक्र ने
हाथ उठा
कर खुद
को खलीफा
के तौर
पर पेश
कर दिया
और सब
ने उन
पर बैत
कर लिया...
अपनी अलालत
के दौर
में खुद
आप सल्लल्लाहो
अलेवसल्लम
ने अपनी
जगह एक
नमाज़ में
हज़रत अबु
बक्र से
इमामत करायी
थी जिससे
ये मैसेज
भी गया
कि वो
हज़रत अबु
बक्र को
अपना वारिस
मानते थे...
हालाँकि इस
पर आज
तक मतभेद
है... शिया
मुस्लिम को
आज भी
इस बात
पर ऐतराज़
है कि
अपने आखिरी
वक़्त में
आप ने
जब अपना
वारिस नियुक्त
करने के
लिए कागज़
कलम माँगा
था (हालाँकि
नबी पढ़े
लिखे नहीं
थे) तो
उनकी दिमागी हालत
को सही
न बताते हुए
उन्हें कागज़
कलम नहीं
दिया गया
(ये भी
हालाँकि तय
नहीं कि
उस वक़्त
रसूल हज़रत
अली का
ही नाम
लिखते), जबकि
अपने आखिरी
वक़्त में
खलीफा के
तौर पर
खुद हज़रत
अबु बक्र
ने बाकायदा
हज़रत उमर
को विरासत
सौंपी... ये
भी शिया
और सुन्नी
मुस्लिम के
बीच एक
खलिश है।
बहरहाल
हज़रत उमर
ने जो
खिलाफत (हुकूमत)
की उसमे
उन्होंने न
सिर्फ कई
शरई संशोधन
किये बल्कि
कई नई
रिवायतों की
नीव भी
डाली। उनके
शासन का
अंत उनके
क़त्ल के
साथ हुआ
और उनके
बाद बाकायदा
लोकतान्त्रिक
तरीके से
चुनाव (आज
के जैसा
नहीं) के
ज़रिये हज़रत
उस्मान गनी
खलीफा बने।
लेकिन इस
बीच मुसलमानों
में ही
दो तरह
की विचारधाराएँ
पैदा हो
चुकी थी,
जिनमे उस
वक़्त की
यहूदी साज़िशें
भी हालाँकि
शामिल थी...
एक वो
धड़ा था
जो हज़रत
अली को
खलीफा के
तौर पर
देखना चाहता
था, जबकि
दूसरा इसके
खिलाफ था...
और उन्ही
लोगों ने हज़रत
उस्मान को
क़त्ल कर
दिया जो
उनके खिलाफ
थे... इसके
बाद 3 दिन
तक खलीफा
की कुर्सी
खाली रही,
कारण था
कि हज़रत
अली इसके
लिए राज़ी
नहीं थे,
लेकिन आग्रह
और ज़िद
पर आखिरकार
उन्हें ही
खलीफा बनाया
गया... हज़रत
मुआविया उस्मान
गनी के
खानदान से
थे और
वे उन
लोगों के
अघोषित मुखिया
थे जो
उस्मान गनी
की खिलाफत
के समर्थक
थे और
हज़रत अली
के खलीफा
बनने के
बाद ये
चाहते थे
की वे
उस्मान के
क़ातिलों को
सजा दें...
वजह जो
भी रही
हो लेकिन हज़रत
अली ने
ऐसा नहीं
किया और
इसी कडुवाहट
और इख्तिलाफ़ात
के बीच
पहली बार
रसूल की
विरासत का
दावा करने
वाले लोगों
के बीच
ही जंगे
सिफ़्फ़ीन हुई
जिसका नेतृत्व
हज़रत अली
और हज़रत
मुआविया ने
किया...
इसी
दौर में
इन दोनों
अलग विचारधारा
के लोगों
की पहचान
शिआने अली
और शिआने
मुआविया के
तौर पर
हुई... हज़रत
अली ने
मक्के और
मदीने को
छोड़ कर
अपनी खिलाफत
में, दारुल
सल्तनत (राजधानी)
ईराक़ के
कूफ़े में
बनायीं थी,
जहाँ शिआने
अली की
तादाद मुख्य
थी और
वे यहीं
से शासन
चलाते थे...
हलाकि हिजरत
के लगभग
चालीसवें साल
में उन्हें
भी क़त्ल
कर दिया
गया (661 ई०), हज़रत अली के इंतेक़ाल के बाद हसन ने उनकी
जगह ली लेकिन जल्द ही उन्होंने और ज्यादा खूनखराबा रोकने के लिए मुआविया से एक सशर्त
समझौता करते हुए सारे अख्तियारात उन्हें दे दिए कि वे सिर्फ अवाम के तहफ़्फ़ुज़ पर ध्यान
देंगे और कोई सल्तनत नहीं कायम करेंगे। इसके बाद हज़रत अली का परिवार मदीना चला गया
जहाँ बनु हाशिम की सरदारी उनके सर रही।
इस तरह खिलाफत
हज़रत मुआविया
के हाथ
आई हालाँकि बाद में मुआविया ने हसन से किया समझौता तोड़ते
हुए उमय्यद सल्तनत की शुरुआत की और अगले बीस सालों तक इस्लाम का परचम दूर दराज के मुल्कों
तक लहराया, जिसकी दारुल सल्तनत दमस्कस में बनायीं और सुन्नियों के लिए सही रास्ते पर
किसी खलीफा की यह आखिरी सल्तनत थी जबकि हज़रत अली के मानने वालों के लिए हसन उस दौर
में भी उनके दूसरे इमाम (पहले हज़रत अली) बने रहे। 670 ई० में हसन के इंतेक़ाल (मान्यता
के मुताबिक हसन
को ज़हर
दे कर
क़त्ल कर
दिया गया
(670 ई०), जिसका
शक तो
उनकी यहूदी
से मुस्लिम
बनी बीवी
पर किया
गया पर
कोई ताईद
कभी नहीं
हुई) के बाद हुसैन ने बनु हाशिम की ज़िम्मेदारी संभाली
हालाँकि कूफा वासी उनसे गुज़ारिश करते रहे के वे उनके बीच आएं, जहाँ उन्हें खलीफा स्वीकार
कर लिया जायेगा पर हुसैन तब भी खुद हसन-मुआविया के बीच हुए समझौते से बंधा पाते रहे
(मुआविया के जिन्दा रहने तक), अपने आखिरी
वक़्त में
हज़रत मुआविया
ने एक
बड़ी गलती
की... उन्होंने
बाकायदा अपने
30 साल के
बेटे यजीद
को खलीफा
घोषित कर
दिया हुसैन से उनके बेटे यजीद को उनका वारिस मानने की
गुज़ारिश की जिसे हुसैन ने ठुकरा दिया और इसे हसन और उनके बीच हुए समझौते में दगाबाजी
माना। मुआविया की मौत के बाद किसी भी हालत में यजीद को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया,
यजीद ने अपने एक गवर्नर वलिद को उन्हें और मक्के मदीने में अहम प्रभाव रखने वाले,
अब्दुल्लाह
इब्ने उमर,
अब्दुर्रहमान
इब्ने अबु
बक्र और
अब्दुल्लाह
इब्ने ज़ुबैर
को समझाने, उन पर दबाव बनाने भेजा। यजीद एक
बदकिरदार शख्स
था जो
खलीफा बनने
के लिए
किसी भी
तरह लायक
नहीं था
और इसी
वजह से
इस्लामिक हुकूमत
में उसके
खिलाफ लोग
खड़े हुए
और उसे
खलीफा मानने
से इन्कार
किया, जबकि
यजीद के
लिए उस
वक़्त उसकी
राह के
हुसैन इब्ने
अली, अब्दुल्लाह
इब्ने उमर,
अब्दुर्रहमान
इब्ने अबु
बक्र और
अब्दुल्लाह
इब्ने ज़ुबैर सबसे
बड़े रोड़े
थे... ये
लोग अगर
उसकी खिलाफत
स्वीकार कर
लेते तो
फिर तमाम
आलमे इस्लाम
में उसका
ग़लबा क़ायम
हो जाता...
उसने इन
लोगों के
पास बैत(साधारण
भाषा में
किसी की
सत्ता स्वीकार
कर लेना/
अपना मुखिया
मान लेना)
करने के
संदेश भेजे
लेकिन यजीद
जैसे शख़्स
से ये
कैसे बैत
कर लेते,
उन्होंने इन्कार
कर दिया।
यजीद के
मंसूबे कामयाब
न हुए...
उसी दौर
में कूफ़े
के लोग
भी उसके
उतने ही
खिलाफ थे
और उससे
बैत करने
को राज़ी
न थे
और उन्होंने
हुसैन को
ढेरों चिट्ठियां
लिखी और
उन्हें कूफ़े
आने का
बुलावा भेजा
कि वो
उनसे बैत
करना चाहते
हैं... हुसैन
ने कूफ़े
वासियों की
बात पर
(ढेरों साथियों
के मना
करने/समझाने
के बावजूद)
यकीन कर
लिया और
अपनी रवानगी
का फैसला
सुना दिया।
इधर
यजीद ने
कूफ़े वासियों
पर लगाम
लगाने के
लिए, और
किसी तरह
भी हुसैन
को अपने
सामने पेश
करने के
लिए अपने
एक ख़ास
सिपहसालार
शिमर को
वहां का
गवर्नर बना
कर भेज
दिया था,
जो अपने
लाव लश्कर
के साथ
कूफ़े पर
ऐसा ग़ालिब
हुआ कि
विरोध करने
वाले भी
ठन्डे पड़
गए... हज़रत
हुसैन अपने
परिवार/ खानदान
के 72 लोगों
के साथ
कूफ़े के
लिए रवाना
हुए... उनके
सफर का
अंत एक
मुहर्रम को
कूफा से
पहले ही
कर्बला में
दजला नदी
के किनारे
हुआ जहाँ
अपने लश्कर
के साथ
शिमर ने
उन्हें घेर
लिया... यहाँ
पहले उन्हें
समझाने की
कोशिश हुई
कि वो
यजीद से
बैत कर
लें पर
ये ज़िल्लत
हुसैन को
मंज़ूर नहीं
थी... फिर
उन्हें सताया
गया, दजला
के किनारे
पर होने
के बावजूद
उन्हें पानी
के लिए
तरसाया गया
और जब
फिर भी
बात नहीं
बनी तो
शिमर ने
8 मुहर्रम को
बाकायदा जंग
शुरू कर
दी और
3 दिन में
ही कर्बला
में ऐसा
क़त्लेआम मचा
के सारे
लोग शहीद
हो गए
... 10 तारिख (10 oct. 680)
को हुसैन
को शहीद
करके शिमर
ने उनका
सर कलम
किया और
शाम ले
जाकर यजीद
के हुजूर
में पेश
किया... इसके
बाद से
ये मुहर्रम
इस्लामी तारिख
में ऐसे
ज़ख्मों के
लिए याद
किया जाता
है जो
कभी नहीं
भरे... कूफा
के लोग,
दूसरे शब्दों
में शिआने
अली जिन्होंने
खुद चिट्ठियां
भेज भेज
कर हुसैन
को कूफा
बुलाया था,
शिमर की
ताक़त और
दहशत के
आगे बेबस
साबित हुए,
वो न
उसके खिलाफ
जंग में
हुसैन का
साथ दे
सके और
न उनकी
किसी तरह
मदद कर
सके और
बेबसी से
उन सभी
को अपने
सामने मरते
देखते रहे...
इस के लिये वे आज भी गुनाहगार माने जाते हैं...।
हज़रत अली को पहले इमाम के तौर पर देखने वाले, जो खुद को रसूल के घराने से जोड़ते हैं, हिजरत के करीब 100 साल बाद इमाम ज़ाफ़र के तौर पर उनके बीच एक ऐसी शख्सियत आई जिसने उन्हें कई रवायतें दीं और उन्ही के दौर में हुसैन की शहादत का, कर्बला के हादसों का ग़म मातम के रूप में मनाने का सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक कायम है और वे लोग बाकायदा शिया मुस्लिम कहलाये।
हज़रत अली को पहले इमाम के तौर पर देखने वाले, जो खुद को रसूल के घराने से जोड़ते हैं, हिजरत के करीब 100 साल बाद इमाम ज़ाफ़र के तौर पर उनके बीच एक ऐसी शख्सियत आई जिसने उन्हें कई रवायतें दीं और उन्ही के दौर में हुसैन की शहादत का, कर्बला के हादसों का ग़म मातम के रूप में मनाने का सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक कायम है और वे लोग बाकायदा शिया मुस्लिम कहलाये।
बावजूद
इसके कि
इस्लाम के
मानने वालों
में इसे
ख़ुशी या
गमी के
रूप में
मनाने में
मतभेद हैं
, एक बात
ज़रूर पूछी
जा सकती
है कि
तीस रोज़ों
के इनाम के
तौर पर
खुदा ने
आपको ईद
एक ख़ुशी
के मौके
के रूप
में बख्शी
है, लेकिन
अगर इसी
दिन आपके
घर में
आपके माँ-बाप
को कोई
बेरहमी से
मार दे
तो आप
हमेशा के
लिए क्या
ईद मानना
छोड़ देंगे?
मुहर्रम की
अहमियत हिजरी
के पहले
महीने के
तौर पर
ही नहीं, 10 तारिख
के आशूरे
के तौर
पर भी
है जिसके
बारे में
ऊपर लिखा
है के
हमारे नबी
इस दिन
को कितनी
अहमियत देते
थे... बाद
के हालात
के मद्देनज़र
क्या हम
इसे गमी
में तब्दील
कर दें?
एक और
बात जो
इस पूरी
कहानी में
सामने आती
है के
इस्लाम भले
अमन और
भाईचारे का
सन्देश देने
वाला मज़हब
है पर
हमेशा से
इसमें एक
अलग तरह की
विचारधारा
का भी
समावेश रहा
है जिसे
हिंसा कहा
जाये तो
अतिशियोक्ति
नहीं होगी...
पढ़ने/सुनने
में भले
अजीब लगे
पर आखिर
रसूल के
आँख बंद
करने के
बाद हज़रत
उमर, हज़रत
उस्मान, हज़रत
अली, हसन,
हुसैन सभी
उन्ही लोगों
के हाथों
क़त्ल किये
गए जो
खुद इस्लाम
के मानने
वाले थे
और आज
भी दुनिया
के कई
मुल्कों में
ढेरों मुसलमान
(शिया/सुन्नी)
उन्ही लोगों
के हाथों
मारे जा
रहे हैं
जो इस्लाम
के ही
झंडा बरदार
हैं।
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