नोट बंदी
नोट बंदी
भारत में पहली बार 1946 में एक हज़ार और दस हज़ार रुपये के नोट बन्द किये गये थे, उसके बाद 1978 में मोरारजी देसाई की जनता सरकार ने एक हज़ार, पांच हज़ार और दस हज़ार के नोट बन्द किये थे... देसाई सरकार में मनमोहन सिंह ही वित्त सचिव थे और उस वक़्त ये बड़े नोट क्या मायने रखते थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि तब आम आदमी के लिये सबसे बड़ा नोट सौ का हुआ करता था और तब सोना 40-50 रूपये तोला हुआ करना था तो ज़ाहिर है कि इस नोटबंदी का असर सिर्फ बड़े लोगों पर ही हुआ था, लेकिन फिर भी इसके कोई सकारात्मक परिणाम नही निकले थे और यही वजह थी कि बाद की सरकारों ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की।
और केवल यहीं नहीं बल्कि अपने पड़ोसी म्याँमार में 1964 और 1985 में यही प्रयोग किया गया और नाकामयाबी हाथ लगी, तो वहां तीसरी बार फिर 1987 में मुद्रा रद्द कर दी गयी, और जब तीसरी बार यह किया गया तो पुराने बड़े नोटों के बदले में कुछ भी दिया नहीं गया... यानी क़रीब तीन-चौथाई मुद्रा लोगों के हाथ से बिलकुल निकल गयी— लेकिन क्या वहां काले धन की समस्या ख़त्म हो गयी? नहीं, बल्कि उससे हुआ यह कि वहां के वित्तीय संस्थानों से लोगों का भरोसा उठ गया और पैसा सिर्फ़ ज़मीन और सोने में लगाया जाने लगा। यह स्थिति अर्थव्यवस्था को जड़ कर देती है क्योंकि सोने और ज़मीन में लगे धन का इस्तेमाल किसी उत्पादक काम में तो होता नहीं— तो अर्थव्यवस्था का पहिया कैसे घूमे?
श्रीलंका में भी 1970 में ऐसा किया जा चुका है— वहां तो सौ और पचास तक के नोट बदल दिये गये थे, लेकिन वह प्रयोग भी विफल ही रहा।
दुनिया भर में ये ब्लैक मनी प्रचलन में है, ये अफ्रीका के छोटे गरीब देशों से लेकर अमेरिका और अमेरिका के दक्षिणी देशों तक में एक पैरेलल इकोनॉमी के रूप में व्यवस्था पर काबिज़ है। अगर काले धन वालों की लिस्ट बनायेंगे तो 626.26 बिलियन यू.एस. डॉलर के साथ अमेरिका पहले पायदान पर है और चीन (260.57), मेक्सिको (124.63), स्पेन (123.85), इटली (110.12), जापान (109.84), कनाडा (70.36), के बाद सातवें नंबर पर हम 70.82 बिलियन यूं.एस. डॉलर की ब्लैक मनी रखने वाले देश हैं और हमसे नीचे 60.69, के साथ यू. के. और 47.73 बिलियन यू. एस. डॉलर के साथ रशिया है।
अब थोड़ा दिमाग लगाइये, एक विकसित देश सुपर पॉवरअमेरिका के मुकाबले में हम कहां ठहरते हैं... वे हमसे कहीं ज्यादा उन्नत, बुद्धिजीवी अर्थशास्त्रियों से लैस, काबिल और हमारे मुकाबले कई गुना बेहतर संसाधनों वाले हैं और जहां का शासन-प्रशासन हमसे कहीं ज्यादा निष्पक्ष और ईमानदार है... लेकिन बावजूद इसके अगर वो इस समस्या से नहीं निपट सके तो आप ये सोचते हैं कि इस तरह करेंसी चेंज के बहाने पूरे देश को लाइन में लगा कर आप काले धन की समस्या को ख़त्म कर देंगे तो समझ लीजिये कि यह आपकी ऐसी खुशफहमी है, जिस पर सिर्फ तरस खाया जा सकता है।
हो सकता है कि इस तरह कुछ हज़ार करोड़ आपको हासिल हो जाये और कुछ हज़ार करोड़ बिना बैंकों तक पहुंचाये नष्ट कर दिये जायें, लेकिन इस कामयाबी के पीछे आप खो कितना रहे हैं... नोटों के बनाने, वितरण करने और नष्ट हुए नोटों के खर्च को किनारे भी कर दें तो सारा देश जो बैंक-एटीएम के आगे बंधक बना हुआ है, बाजार मुर्दा हो चुके हैं और यूं देश की अर्थव्यवस्था को जो हज़ारों करोड़ रोज़ का नुक्सान हो रहा है वो इस तमाशे के अंत तक लाखों करोड़ का हो चुका होगा।
इसके सिवा जो अर्थव्यवस्था पटरी से उतरेगी और वापस आने तक जो आर्थिक बदहाली का दौर देश झेलेगा वो अलग। तो खुद सोच लीजिये कि इस तमाशे में फायदा कितना है और नुक्सान कितना।
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