धर्मयात्रा
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धर्मों की व्याख्या
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चलते हैं आधुनिक दुनिया के जाने पहचाने धर्मों की व्याख्या पर… इनकी ज़रुरत
कम्युनिकेशन के सहारे साझा मिथकों वाले बड़े समूहों को तैयार भर ही नहीं थी… और भी
छोटे-छोटे कई कारण हो सकते हैं कि इनकी ज़रुरत महसूस की गयी हो। किसी महापुरुष ने
कहा है कि अगर हमें किसी चीज को समझना है तो हमें पहले उसके उद्देश्य को समझना
चाहिये क्योंकि वह मुख्य है— बाकी बात को कहने के लिये उपमाओं, अलंकारों, प्रतीकों और
रूपकों का जो सहारा लिया जाता है,
वह कभी मुख्य नहीं होता लेकिन अगर आप उन्हें ही सबकुछ मान लेंगे तो निश्चित ही
उद्देश्य से भटक जायेंगे।
यह नियम उन सभी धर्म और धार्मिक किताबों पर लागू होता है। पहले तो यह समझें
कि धर्म क्या है— वास्तव में धर्म है आपके सत्कर्म। आपके वह अमल जो मानव की भलाई
के लिये हों और जो किसी भी कसौटी पर इंसानियत के खिलाफ जा रहा है, तो वह अधर्म है, कुफ्र है।
यह पूजा अर्चना,
रोजे नमाज अलग-अलग मतों सम्प्रदायों की पूजा पद्धतियां हैं न कि धर्म। यदि आप
दिन रात पूजा पाठ रोजे नमाज कर रहे हैं और बाकी दिनचर्या में एक भी ऐसा काम कर रहे
हैं जो मानव हित से परे हो,
या उससे आपका चारित्रिक दोष साबित होता हो तो आप धार्मिक नहीं हैं, बल्कि धार्मिक
होने का ढोंग कर रहे हैं। दूसरों को भी भ्रम दे रहे हैं और खुद भी भ्रम में हैं—
और इसका दुखदायी पहलू यह है कि आज के दौर में शायद ही इस कसौटी पर कोई खरा उतरे।
अब आइये धार्मिक किताबों पर,
वे चाहे जिस धर्म से संबंधित हों— वे न सिर्फ सामाजिक व्यवस्था के संचालन को
परिभाषित करती हैं अपितु श्रेष्ठ मानवीय आचार व्यवहार को भी तय करती हैं। यहां
लिखे जाने के वक्त की और आज की परिस्थितियों के अनुसार भेद हो सकता है लेकिन वह
अलग विषय है।
मसलन कुरान का बदला लेने जैसे आदेश या मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था। कुरान
के आदेश उस वक्त के हालात के हिसाब से थे,
उसी तरह मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित लिखी गयी होगी लेकिन श्रेष्ठ
कुल के लोगों ने जब उसे जन्म आधारित मान लिया तो अब उस व्यवस्था को डिफेंड करने का
कोई मतलब ही नहीं जो एक बड़े नागरिक समूह को शोषण के दलदल में धकेल देती हो।
सभी धर्मों के उत्थान काल में ढेरों कहानियाँ लिखी गयीं जिनमें ज्यादातर
रूपक कथायें थीं जिनके पात्र और कथानक को ग्रहण करने के बजाय उनके सार को ग्रहण
करना था लेकिन दुर्योग से हुआ वही कि लोगों ने सार न ग्रहण करके पात्र ग्रहण कर
लिये, कहानियाँ
ग्रहण कर लीं। इस काम में हिंदू समाज अग्रणी रहा— जिसके फलस्वरूप न सिर्फ ढेरों
अजीबो गरीब भगवान अस्तित्व में आ गये... इंसान से ले कर पशु पक्षी तक के अवतार
में— अपितु ढेरों चमत्कारों भरी कहानियाँ भी वजूद में आ गयीं।
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वह कहानियाँ जो तर्क की कसौटी पर कहीं से खरी नहीं उतरतीं, उल्टे
नास्तिकों या उदार व्याख्या वाले बुद्धिजीवियों की हंसी का कारण बनती हैं। इसका एक
साईड इफेक्ट यह भी हुआ कि चमत्कार के मोहपाश में बंधे बाकी धर्म भी अपने धर्म और
महापुरुषों के साथ जबरन चमत्कार जोड़ने लगे।
सबसे लास्ट में वजूद पाये और बाकियों के मुकाबले सबसे व्यवहारिक धर्म
इस्लाम भी इसके संक्रमण से न बच सका और सबसे लेटेस्ट भगवान साईं बाबा की अंतड़ियां
भी धो कर पेड़ पर सुखाई जाने लगीं— यह हमारी मानसिक कमजोरी है कि हम चमत्कार को ही
नमस्कार करते हैं।
तो मूल रूप से धर्म या धर्म पुस्तकों का मूल उद्देश्य कभी चमत्कार से लोगों
को अभिभूत करने या वैज्ञानिक चुनौतियों को स्वीकार करना या वैज्ञानिक शोध पेश करना
था ही नहीं। विज्ञान एक अलग चीज है। धर्म जहां मानव जीवन को सुव्यवस्थित करने के
लिये था वहीं विज्ञान को मानव जीवन को सरल,
सहज और सुरक्षित करने वाली विधा के रूप में रख सकते हैं।
लेकिन चूँकि विज्ञान ने धर्म से संबंधित अनुमान आधारित कई अवधारणाओं को
ध्वस्त कर दिया तो धार्मिक लोगों ने इसे अपना सहज शत्रु समझ लिया और इसे धर्म के
मुकाबले तुच्छ और हीन साबित करने के लिये उन किताबों से साईंस निकालने लगे, जिनका मकसद कभी
साईंस था ही नहीं।
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अब यह कोशिश दिन रात धर्म की रक्षा में लगे लोगों को हास्यास्पद बना देती
है— जिसके जिम्मेदारी यह खुद को बहुत जहीन समझने वाले गैर जिम्मेदार लोग हैं न कि
धर्म या धर्म पुस्तकें।
बहरहाल, इस लेख
में उन चमत्कारों और दावों पर चर्चा करूँगा— सबसे पहले बात बात होगी धर्म और
धार्मिक व्यवस्थाओं की जरूरत क्यों और कहां से पड़ी।
धर्म की जरूरत क्यों पड़ी,
इसके लिये हमें मानव इतिहास में जाना पड़ेगा। देखिये, किसी परिस्थिति
को समझने के लिये हम 'आज' में खड़े रह कर
तो उसे नहीं समझ सकते, बल्कि
दिमागी तौर पर हमें वहीं चलना होगा। अब इसे पीछे लिखे गयी मानव विकास यात्रा से
थोड़ा अलग हट के वर्तमान में मौजूद मत मान्यताओं के नज़रिये से परखने की कोशिश करते
हैं।
इंसान के अवतरण की तीन तरह की थ्योरी प्रचालन में हैं जिसमें सबसे फेमस तो
दो लोगों (एडम ईव) से शुरू होने वाली
आस्थागत थ्योरी है, दूसरी
तार्किक रूप से खरी इवॉल्यूशन वाली थ्योरी है और तीसरी एक्सट्रा टैरेस्ट्रियल में
यकीन रखने वाले वैज्ञानिकों की थ्योरी है कि हम मूलतः इस ग्रह से नहीं हैं बल्कि
हम एलियन और चिम्प्स की मिश्रित नस्ल हैं।
यानि वे मानते हैं कि कुछ एलियन पृथ्वी पर आये, यहां के सबसे
ज्यादा आईक्यू वाले जानवर के साथ अपने जींस मिक्स करके एक नयी नस्ल बनाई जो कि
मानव थे। यह एलियन लगातार पृथ्वी पर तब आते रहे हैं और इन्होंने ही इंसान को आग, पहिये या खेती
वगैरह का ज्ञान दिया। इनके पास उड़ने की तकनीक थी— लड़ने के लिये अत्याधुनिक हथियार
थे और यही वह लोग थे जिन्हें जनश्रुतियों में देवता फरिश्ते आदि कहा गया।
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अटलांटिस नाम का समुद्र में गर्क शहर इन्हीं का बसाया हुआ था और इनसे
संबंधित कई तरह के प्रूफ मूफान आर्काइव में सुरक्षित हैं जिनके लिये शेष दुनिया का
मत है कि वे किवदंतियों से ज्यादा कुछ नहीं— इसलिये हम इस थ्योरी को खारिज कर देते
हैं।
आदम हव्वा या फिर इवॉल्यूशन
जो थ्योरी आदम के रूप में पहले
मानव से ही सिविलाइजेशन को स्थापित करती है— उसमें कई त्रुटियां हैं। मतलब
एग्जेक्ट डेटा भले अभी अंधेरे में हो,
मगर फिर भी पहले मानव के चक्कर में हमें कई लाख साल पूर्व तक जाना पड़ेगा और
अगर आपने ओल्ड टेस्टामेंट (जबूर तौरात आदि) पढ़ा है तो आपको पता होगा कि उन्हें
खेती बाड़ी, शिकार, आग, घर निर्माण, सब पहले से पता
था। फिर तो आदिमानवों और उनकी विकास यात्रा का कोई मतलब ही नहीं रहा।
यानि फिर जो पुरातत्विक प्रमाण साबित करते हैं कि इंसान ने यह प्रगति
हजारों साल में धीरे-धीरे की है,
वह फिट ही नहीं बैठेंगी तो इस थ्योरी को भी हाथ उठा कर आस्थागत ‘जय हो जय हो’
रूपी गुणगान के लिये छोड़ कर डार्विन की थ्योरी के साथ ही चलना पड़ेगा।
यानि चाहे श्रंखला किन्हीं दो लोगों से शुरू हुई हो (यहां अपनी संतुष्टि के
लिये आप उन्हें आदम हव्वा मान लें) या चिम्प्स का कोई परिवार या समूह भोजन या
सुरक्षा के मद्देनजर जंगल से निकला,
उसने दो पैरों पे चलना शुरू किया और क्रमिक विकास के सहारे वर्तमान मानव तक
पंहुचा... पर यह तय है कि उसने तब किसी सुप्रीम स्पीसीज से महरूम घने वनों वाले
प्लेनेट पर किसी जंगल से ही यह सफर शुरू किया था।
इस मान्यता के साथ आप आदम हव्वा को भले एडजस्ट कर लें लेकिन पहले ही आदमी
से सिविलाइजेशन शुरू करने वाली बाईबिल की थ्योरी उस सूरत में भी आपको ठुकरानी ही
पड़ेगी।
आग और पहिये ने सभ्यता को नयी दिशा दी
बहरहाल— पहले यह लोग जंगली फल फूल पौधे वगैरह खाते रहे होंगे लेकिन बाद में
पत्थरों से वह हथियार बनाये जिनसे जानवरों का शिकार कर सकें और कच्चा मांस आदि
खाना शुरू किया। आगे चल कर उन्हें किसी तरह आग का ज्ञान हुआ और वे मांस पका कर
खाने लगे... फिर कालांतर में उन्हें खेतीबाड़ी, पहिये के इस्तेमाल की जानकारियाँ हुईं, जिनसे उनका
जीवन कुछ और सुगम हुआ।
आगे चल के इनकी आबादियां बढ़ीं और इन्होंने प्रवास शुरू किया। दुनिया के
अलग अलग वनक्षेत्रों में पंहुचे— जहां भोजन की प्रचुरता मिली, कृषि के लिये
उपजाऊ भूमि मिली, वहीं
बसते गये। तब स्थायी बस्तियां बसाने से पहले इंसानों के भी जानवरों की तरह ही भोजन
और प्रजनन से इतर कोई ख़ास लक्ष्य नहीं थे— बड़े समूहों में ढलने से पहले उन्हें
किसी तरह के धर्म की जरूरत ही नहीं थी लेकिन जब तादाद बढ़ती है तो समस्यायें अपने
आप पैदा होने लगती हैं।
वे कबीलों के रूप में बसे थे जिसके सबूत आज भी अफ्रीका और अमेजॉन में मिल
जायेंगे— लेकिन आबादियां बढ़ने के साथ कबीलों का फैलाव कुछ नगरों के रूप में होने
लगा। भोजन के ज्यादा मौकों,
शक्ति, निर्माण
कार्य और स्त्रियों के पीछे वे एक दूसरे पे हमले करने लगे। यहां तूती उसी की बोलती
थी जिसके पास ताकत हो।
लूट और हमलों के पीछे तब भले मजदूर,
भोजन, धन, और स्त्रियाँ
कारण हों— लेकिन बाद के सभ्य दौर तक इस तरह के हमलों की वजह धन और स्त्री ही बनी
रही... और इस प्रचलन के कारण इंसानी जिंदगी (खासकर पुरुषों की) बेहद अस्थिर, अनिश्चित और
असुरक्षित बनी रही। तब सर्वाईव करने के लिये उन्हें लगातार छुपना, बचना और लड़ना
पड़ता था। इन परिस्थितियों को आप 'अपोकैलिप्टस’, ‘10,000 बीसी' जैसी हॉलीवुड
फिल्मों में बखूबी समझ सकते हैं।
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