पारसी धर्म का इतिहास

 


क्या है पारसी धर्म?

दुनिया के प्राचीन धर्मो में से एक पारसी धर्म की शुरुआत फारस (persia - Modern day Iran) में हुई थी। पारसी धर्म एक एकेश्वरवादी (monotheist )अर्थात एक ईश्वर को मानने वाला धर्म है। 'अहोरा माज़दा’ पारसी धर्म के एकमात्र देवता है।

आधुनिक अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में जन्मे पैगंबर जरथुष्ट्र द्वारा स्थापित पहला एकेश्वरवाद मत, पारसी धर्म कहलाया। जरथुष्ट धर्म की नींव प्राचीन ईरान में कोई 3500 साल पहले पड़ी थी. हजारों साल तक यह ताकतवर पारसी साम्राज्य का आधिकारिक धर्म रहा लेकिन सन 650 में अंतिम जरथुष्ट राजा की हत्या और इस्लाम के उदय ने इसे लंबे समय के लिए अंत की ओर धकेल दिया.

हालांकि दमन की तमाम कोशिशों के बावजूद भी धर्म जिंदा रहा. ईरान में इस्लाम का असर बढ़ने के बाद मुट्ठी भर पारसी भाग कर भारत आ गए और फिर यहीं के हो कर रह गए. कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आये और यहाँ गुजरात तट पर नवसारी में आकर बस गये. वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70% बम्बई में रहते हैं.


633 ई. में अरब मुसलमानों का आक्रमण शुरू होने पर इराक़ को और फिर 651 ई. में ईरान को जीत लिया गया. अग्नि मंदिर नष्ट किए गए, धार्मिक ग्रंथ जलाए गए और लोगों को बलपूर्वक धर्मांतरित किया गया. कई लोग भागकर रेगिस्तान या पहाड़ों में छिप गए.

अन्य दक्षिण ईरान के प्राचीन राज्य पर्सिस चले गए और वहां उन्होंने स्वयं को सुरक्षित कर लिया. कुछ अन्य हॉरमुज़ खाड़ी पर स्थित हॉरमुज़ तक पहुंच गए. वहां वे 100 साल रहे और गुप्त रूप से पालदार जहाज़ बनाते रहे. अंतत: वे जहाज़ से भारत रवाना हुए और गुजरात में काठियावाड़ के सिरे पर मछुआरों के दिऊ गांव पहुंचे।

जब पारसी समुदाय ईरान को छोड़कर भारत के गुजरात मैं पहुंचे, तब गुजरात के राजा यादव राणा थे, तब इस समुदाय के लोग राजा यादव राणा से शरण मांगी थी। पर राजा यादव राणा ने शरण देने से मना कर दिया था। उस वक्त गुजरात के लोग पारसी भाषा नहीं समझ पाते थे, सिर्फ पारसी सांकेतिक भाषाओं से ही बात कर सकते थे।

इसीलिए राजा ने एक दूध की कटोरी पारसियों के सरदार के सामने रखकर यह समझाने की कोशिश की...कि वे उनको शरण नहीं दे सकते। फिर पारसियों के सरदार ने दूध की कटोरी में थोड़ा चीनी डालकर यह समझा दिया था कि जैसे दूध के साथ चीनी घुल मिल गया और पता भी नहीं चला, वैसे हम आपके साथ ऐसे मिल जाएंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा।

इस बात से राजा यादव राणा ने प्रभावित होकर पारसियों को भारत में शरण दी थी। यही वजह है कि भारत में इस धर्म को फलने फूलने का मौका मिला.

जरथुष्ट्र का काल 1700-1500 ई0पू0 के बीच के बीच माना जाता है। जरथुष्ट्र को राजा सुदास तथा ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। एक ज़माने में पारसी धर्म ईरान का राजधर्म हुआ करता था।

अखेमनी साम्राज्य के समय पारसी मध्य एशिया का प्रमुख धर्म था। जेंद अवेस्ता पारसियों का सर्व प्रमुख ग्रंथ है जिसकी भाषा ऋग्वेद के समान है। ‘जेंद अवेस्ता' में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंत्र (मन्थ्र) हैं। कई मायने में पारसी धर्म सनातन या वैदिक हिन्दू धर्म के समान है हलांकि, आप केवल जन्म से ही पारसी हो सकते हैं।

प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई ज्यादा भेद नजर नहीं आता। वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि प्रकृति तत्वों की उपासना और अग्निहोत्र कर्म करते थे। आज भी वे पंचभूतों का आदर करते हैं किंतु अग्नि को सबसे पवित्र माना जाता है।

सदियों पुराने पारसी धर्म को मानने वालों की संख्या पूरी दुनिया में बहुत ही कम है। अधिकत्तर लोग भारत के महाराष्ट्र और गुजरात में हैं। भारत में यह समुदाय कारोबार की दुनिया में काफी प्रभावशाली है। धर्म के नियमों के मुताबिक सिर्फ पारसी मां बाप की संतान ही जरथुष्ट हो सकती है।

इनमें से अगर कोई एक दूसरे धर्म का हो तो संतान को धर्म में शामिल नहीं किया जा सकता। भारत के पारसी इस नियम का कठोरता से पालन करते हैं और इसी कारण से इनकी संख्या तेजी से घट रही है। भारत सरकार ने इनकी आबादी को बढ़ाने के लिए जिओ पारसी योजना ला रखी है।

ये बताता है की इनका मकसद कभी भी ना ही अपनी विचार दूसरों पे थोपना था ना ही धर्मांतरण करना है। ये लोग मिलजुल कर रहना बहुत पसंद करते है। यही कारण है की भारत में पारसी - हिन्दू दंगे कभी नहीं हुए इससे अलग पारसी और मुस्लिम दंगे भारत के इतिहास में दो बार हुए हैं।


विभिन्न धर्मों में मृतक के शरीर को अंतिम विदाई देने का अलग-अलग तरीका होता है। जिस तरह हिन्दू और सिख धर्म में शव का दाह-संस्कार किया जाता है, इस्लाम और ईसाई धर्म के लोग शव को दफनाते हैं।वही पारसी परंपरा में एक मृत शरीर को अशुद्ध मानती है, अर्थात संभावित प्रदूषक।

पृथ्वी या आग के प्रदूषण को रोकने के लिए, मृतकों के शवों को एक टॉवर के ऊपर रखा जाता है और उन्हें सूरज के संपर्क में लाया जाता है ताकि सूरज की गर्मी और गिद्धो की वजह से शव को नष्ट किया जाता है।टॉवर ऑफ़ साइलेंस (दखमा)-पारसी अंतिम संस्कार का टॉवर...एक ऐसी जगह है जहाँ मृतक के शवों को रखा जाता है और मेहतर पक्षियों (जैसे गिद्ध) को उजागर किया जाता है, जो उनकी मान्यताओं के अनुसार मृतकों से निपटने का सबसे पवित्र तरीका है।

टॉवर की संरचना गोलाकार होती है और इसमें तीन पंक्तिया है, पहली पंक्ति पुरुष के शवों के लिए दूसरी महलियो के लिए और बीच में बचो के लिए। पिछले करीब तीन हजार वर्षों से पारसी धर्म के लोग दोखमेनाशिनी नाम से अंतिम संस्कार की परंपरा को निभाते आ रहे हैं। इस परंपरा को निभाने के लिए ये लोग पूर्णत: गिद्धों पर ही निर्भर हैं।

क्योंकि गिद्ध ही मृतक के शव को अपना भोजन बनाते हैं। ईरान में टावर ऑफ़ साइलेंस पर 1970 में पाबंधी लगा दी। अब ईरानी ज़ोरोस्ट्रियनो ने शवों को दफनाना शुरू कर दिया है। भारत में एक ‘टॉवर ऑफ साइलेंस’ मुंबई के मालाबार हिल्स में स्थित है। पारसी अपने धर्म के प्रति काफी सख्त हैं, इसलिए गैर-पारसियों को टॉवर ऑफ साइलेंस में जाने की इजाज़त नहीं है और न ही उनके पवित्र अग्नि मंदिर में।) पर आज भारत और पूरी दुनिया में पारसी लोगो ने 'दाह संस्कार' करना या दफ़न करना शुरू कर दिया है।

अन्ततः आज पारसी न्यू ईयर है। जिसे नवरोज के नाम से भी जाना जाता है.पारसी समुदाय के लोग इसे बहुत ही धूम-धाम से मनाते हैं, क्योंकि उनके लिए ये पर्व बहुत ही खास होता है. भारत में पारसियों का एक छोटा समुदाय है। वे मुख्य रूप से पश्चिमी तट, कोलकाता (भूतपूर्व कलकत्ता), चेन्नई (भूतपूर्व मद्रास) और दिल्ली में रहते हैं।


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