फिल्म समीक्षा: सत्यकाम




 सत्यकाम

कल सत्यकाम (1969) मूवी देखने का अवसर मिला ।

मूवी यूट्यूब पर उपलब्ध हैं ।

यह मूवी एक आदर्शवादी, सत्य पर चलने वाले नौजवान की कहानी है, जो अंत तक नौजवान बना रहता हैं ।

मूवी शुरू होती हैं नायक के दोस्त के शब्दों से, जो कि अपने दोस्त के बारे में अपने अनुभव लिख रहा होता हैं ।

मूवी फ़्लैश बेक में जाती हैं जहाँ नायक औऱ नायक का दोस्त अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे होते हैं । यह आज़ादी से ठीक पहले का समय होता हैं । सभी के दिमाग मे चल रहा होता हैं कि आजादी के बाद हिंदुस्तान की तस्वीर पलट जाएगी और समाज मे फैली सारी बुराइयां का खात्मा हो जाएगा ।

मूवी में नायक का पालन पोषण उसके दादा के द्वारा होता है जो कि उसमे सत्य की सारी खुराक भर देते हैं । शायद इसी लिए नायक का नाम सत प्रिय रखा जाता हैं ।

नायक जब अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके जब अपने फील्ड में उतरता है तो पाता है कि सब जगह करप्सन भरपूर मात्रा में फैला हुआ हैं । लेकिन उसका इस पर कोई फर्क नही पड़ता । वो अपने सत्य के सिद्धांतों पर ही चलता हैं।

मूवी के एक जगह नायक अपने जूनियर को रिश्वत लेते हुए पकड़ लेता है और उसको बर्खास्त कर देता हैं । जूनियर की वाइफ अपने बीमार बच्चे के बारे में जानकारी देकर नायक के सत्य को झंझोड़ती हैं । उसे बताती है कि मेरे पति ने सिर्फ अपने बच्चे के इलाज के लिए रिश्वत ली क्योकि रुपयों के अभाव में वो अपने बच्चे का इलाज नही करवा पा रहे थे । यहाँ वो नायक से सवाल करती है कि आपका सत्य आपके पड़ोस में बीमार बच्चे को क्यों नही देखता । आपका सत्य अपने जूनियर पर ही क्यों कहर ढाता है, आपके सीनियर पर क्यों नही ।
नायक को आत्मग्लानि होती है औऱ वो अपने पद से इस्तीफा दे देता हैं ।

पूरी मूवी में अपने सत्य की की वजह से उसे बार बार नौकरी बदलनी पड़ती हैं । पूरी मूवी में सत्य को परेशान होता दिखाया गया हैं ।

"सत्य का अहंकार नही, बल्कि सत्य बोलने का साहस होना चाहिए ।" नायक में यह साहस मूवी के शुरू में अपने बहुत अच्छे रूप में दिखाई देता है जो कि आगे जाकर अहंकार औऱ कुंठा में बदल जाता हैं । नायक को सत्य के आगे कुछ भी दिखाई नही देता । एक जगह मूवी में जब नायक औऱ नायक के दोस्त को, एक ही आफिस में सयोंग से साथ काम करने का मौका मिलता है तो ये बात काफी अच्छे से उस जगह मूवी देखते हुए महसूस की जा सकती हैं ।

नायक का सत्य उस पर पूर्ण रूप से हावी होकर उसे पूरी तरह से कुंठित कर देता हैं औऱ ये कुंठा अंततः उसे एक गम्भीर बीमारी की गिरफ्त में ले जाती हैं ।
जहाँ मूवी के शुरू में नायक के चेहरे की आभा औऱ सहजता आपको प्रफुलित करती है वही पर मूवी के अंत तक वो गायब हो जाती हैं ।

अति हर चीज की बुरी होती हैं । यदि आपकी कोई खूबी आप पर हावी होने लगे तो समझ लीजिए कि खूबी की अति होने लगी हैं । पूरी दुनिया एक सिस्टम से चलती है । जो सिस्टम का हिस्सा बन जाते है, वो अपनी जिंदगी अच्छे से गुजारते हैं, जो नही कर पाते, वो मूवी के नायक की तरह उम्र भर भटकते रहते हैं ।

मूवी में काफी दर्द है अगर आपमे सत्य की झलक मौजूद है तो मूवी देखते समय आप अपने आप को नायक की जगह देखोगे औऱ आपका दर्द आंसुओ के रूप में बाहर निकलना शुरू हो जाएगा औऱ आपको पता भी नही चलेगा।
"एक आप ही नही तन्हा, आप जैसे सिरफिरे औऱ भी है इस जहाँ में ।"

एक जगह नायक अपने आप को ईश्वर का प्रतिनिधि होने के नाते खुद की सत्य पर चलने की बात करता हैं, लेकिन वो भूल जाता है कि उसके अलावा भी ईश्वर के प्रतिनिधि मौजूद है, वो भी अपना काम कर रहे हैं और तुम भी । पूरा संसार सिर्फ बैलेंस पर चलता हैं। जहाँ भी किसी चीज की अति या अना होती है कुदरत के द्वारा उसे संतुलित कर दिया जाता हैं । आप औऱ हम सिर्फ उस संतुलन का हिस्सा भर हैं, और कुछ नही । ये अहंकार, ग्लानि, खुशी, गर्व, गुस्सा इत्यादि भाव तक सीमित है, सत्य का इनसे कोई लेना देना नही ।

सच हमेशा सहज़ होता है । जैसे जैसे मूवी आगे बढ़ती है नायक की सहजता खत्म होती जाती हैं । इससे प्रतीत होता है कि नायक का सत्य ही अंतिम सत्य नही हैं ।
नायक यदि अपने सत्य की राह पर चलने में सहज़ है तो वो सत्य पर है और यदि कोई असत्य की राह पर चलने में सहज़ है तो दोनो अपनी अपनी जगह सही है । दोनो में से बुरा कोई नही ।

कल ही मूवी देखी है इसलिए एक एक सीन पर लिखने का मन था, लेकिन पोस्ट काफी लंबी हो जाएगी । 😁

शुक्रिया 🤗

Review Written by

No comments